Thursday, December 28, 2017

हम नहीं हटे, डर हटा पीछे कदम दो-चार

आज 'द लल्लनटॉप' में आ रही कविताएँ - 

#1) यह मुश्किल साल था
इतना चाहता हूं कि सामने दिखते दरख्त पर
चढ़ने की मुकम्मल तैयारी कर सकूं
मसलन आबिदा परवीन की गायकी छूट न जाए
तनाव के पल कैसे कटेंगे उसके बिना
कुछ जैज़ बाजा भी साथ हो कि डालों पर फुदकने का मन हो तो…
यह मुश्किल साल था
अब जान चुका हूं कि आने वाला हर साल मुश्किल ही होगा
इसलिए बिरियानी का पैक साथ ले जाना है
भले सब्जियां खाने की उम्र हो गई है
पर मछली थोड़े ही छोड़ सकते हैं
बुर्ज़ुआ आदतें हैं
तो जिन और टॉनिक भी चाहिए;
दरख्त पर साथी और भी होंगे
सबने कुछ इंतज़ाम किया ही होगा
कि साथ-साथ सितारों को देखें
नीहारिकाएं और हर कहीं प्यार अनंत
कल्पना करें कि सितारों के आगे से धरती कैसी दिखती होगी
इस तरह भूल जाएं थोड़ी देर सही
बीते साल भर की मुश्किलें
बीच-बीच में उतरना तो पड़ेगा
अभी ज़मीं पर रंग खिलने बाक़ी हैं
हमारे बच्चे जो युवा हो रहे हैं
रंगों की तलाश में जुटे हैं
उनकी कविताएं सुननी हैं
कुछ उन्हें सुनानी हैं
कोई साथी दरख्त से उतर रहा होगा
देखेंगे हम उसका उतरना
फिर सपनों में तैयारी करेंगे खुद उतरने की
इस तरह यह धरती यह कायनात बेहतर होती जाएगी पल दर पल
साल दर साल.

# 2) धरती ने अभी अरबों साल जीना है
सड़क के ठीक बीचोबीच जंगली गिरगिट;
हरे से भरा था उसका बदन
हरी गर्दन उठाकर उसने मेरी ओर देखा था
और रंग नहीं बदला था
गर्दन उठाए और नज़र में अनगिनत सवाल लिए
वह नवजात मानव-शिशु सा था
निहायत कमजोर और अपने होने में मशगूल
किसी भी पल तेज चलती गाड़ी के नीचे कुचला जा सकता था
उसे बचाने का कोई तरीका सोचना मुश्किल था
लापरवाह अराजक गर्दन कुछ कह रही थी
कि चारों ओर तेजी से बदलते रंगों के इन दिनों में
वह एक नाकाम मुहावरा नहीं था
हारी हुई फौजों का आखिरी सिपाही बन सड़क संभाले हुए था
उसे देखकर मुतमइन होना लाज़िम था कि
यह साल जैसा भी रहा
बदलते रहें रंग और कुचले जाएं हम बार-बार
धरती ने अभी अरबों साल जीना है.

# 3) खरबों बीते सालों सा यह साल भी बीत गया
सर्दी गर्मी बारिश के साथ झूठ और नफ़रत के व्यापार की
साल भर सूचनाएं आती रहीं
पंछी सुबह-शाम बहस-मशविरा करते
कि ऐसे प्रदूषण में रास्ता कैसे देखें
कभी अलग-थलग तो कभी मिल-जुलकर तरीके सोचे गए
यह साल हारते रहने का साल ही था
झूठ का दायरा इतना बढ़ गया
कि धरती के दोनों छोरों पर धुंध घनी थी
हर कोई याद करने की कोशिश में था कि
ऐसी धुंध पहले कब देखी गई थी
हालांकि इकट्ठे पंख फड़फड़ाने से धुंध छंटती नज़र आती
धरती पर बहुत कुछ स्थाई तौर पर बदल चुका था
चुंबकीय ध्रुव इस कदर हिल-डुल रहे थे
कि सही दिशाओं की पहचान करना मुश्किल हो चला था
बहरहाल धरती अपनी धुरी पर है
मौसम बदलते हैं जैसे उनको बदलना है
खरबों बीते सालों सा यह साल भी बीत गया
कायनात का सीना और चौड़ा हुआ
इतना कि अनगिनत छप्पन इंच मिट जाएंगे उसमें.

# 4) हम नहीं हटे, डर ही हटा पीछे कदम दो-चार
इस साल भी आस्मान में कई बार इंद्रधनुष खिला
नई कथाएं लिखी गईं, गीत रचे गए
बच्चे-बूढ़े सब ने पंख पसार सतरंगी धनुष छुआ कई बार
चिंताएं थीं, ऊंचाइयों से कौन नहीं डरता
पंख पिघल भी सकते थे इकारस की तरह
जो गिरे उनके लिए हम सबने आंसू बहाए
हवाओं में अलविदा कहकर चुंबन उछाले
और हाथों में हाथ रख सड़कों पर उतर आए
इस तरह हमने हराया डर को जो हमारे पंख कुतर रहा था
हमने उन सबकी ओर से इंद्रधनुष को और-और छुआ
जिनके पंख कुतरे गए थे;
मुश्किल रहा साल पर डर को घूरा हमने पुरजोर
हम नहीं हटे, डर ही हटा पीछे कदम दो-चार.

# 5) वह भी प्यार है
जो छूट गया
वह प्यार
जो रह गया है वह भी प्यार है
पिछली सरसों का पीला छूटा है
तो आ रहा है फिर से बसंत
आएंगे और गीत-संगीत
घर-घर से निकलेंगी
आज़ादी और बराबरी की आवाज़ें
धरती खारिज करेगी तानाशाह का घमंड
तूफानी हवाओं में धुनें गूंजेंगी प्यार की और-और.

1 comment:

कविता रावत said...

बहुत अच्छी सामयिक रचना प्रस्तुति