Thursday, June 02, 2016

शोर बढ़ा है पर कौन है सुनता


शहर लौटते हुए दूसरे खयाल


पहले वालों से भरपूर निपट लेने के बाद
आते हैं रुके हुए दूसरे खयाल
दिखने लगती है शहर की उदासी
वैसी ही जैसी यहाँ से जाते वक्त थी।
न चाहते हुए भी आँखें देखती हैं
कौन हुआ पस्त और कौन निहाल


शहर थोड़ा फूला भर है,
झंडे बदले हैं, उनके उड़ने के कारण नहीं बदले
उदासीन आस्मान के मटमैले रंग नहीं बदले
शोर बढ़ा है पर कौन है सुनता, है पता किसे


उल्लास का गुंजन छूकर बहती है नदी
पहले जैसा लावण्य है, पर बढ़ी है गंदगी
दीवारें बढ़ी हैं, छतें भी, और बढ़े हैं बेघर
ऊँघता शहर, जीने को अभिशप्त लंबी उमर
हिलता डुलता, कोशिश में बदलने की करवट


टीस है उठती उसे यूँ देखकर
एकाएक मानो अपना यूँ सोचना हम रोक लेते हैं
और उसकी अदृश्य आत्मा को सहलाते हैं।


बहुत बदल चुके हमें चुपचाप देखता है
हम नहीं जानते कि हमें सहला रहा होता है शहर
उसी को पता है
किस वजह से कभी जुदा हुए थे हम।

(अर्थात - 2013; 'कोई लकीर सच नहीं होती' संग्रह में संकलित)

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