Wednesday, June 01, 2016

हमेशा होंगे हम हारी हुई फौजों के साथ

 ये कविताएँ शायद पहले भी पोस्ट कर चुका हूँ, पर अब सर्च करने पर मिल नहीं रहीं, तो फिर कर रहा हूँ।

 शहर लौटने पर पहले-पहल ख़याल

दक्षिण के जाने किस प्रांत से आए कारीगर लेटे होते थे जहाँ
उन जगहों की शक्ल नहीं बदली
जैसे नहीं बदला शाम का धुँआ
मुहल्ले की कुंठाएँ नहीं बदलीं

हालाँकि दस सालों में बदलती भी है आत्मा कुछ
शून्य की ओर बढ़ता शहर लड़खड़ाता फँसा किस आवर्त्त में
मुहल्लों में लगे पेड़
तापस दास पार्टी के बारे में बात नहीं करता
कहता - ये पेड़ रहेंगे ज़िंदा
पेड़ों के पास है असीम दया
शहर की आत्मा को बचाए हुए शैतानी हवाओं से पेड़।

नब्बे के शून्य  पर रची गई कविता
फिल्म बनी शून्य(1) से शुरू करने की(2)
शून्य पर दोनों टाँगें रख धकेल रहा
खुद को कलकत्ता।

1) पहले संग्रह 'एक झील थी बर्फ़ की" में संकलित 'न्यूयार्क 90 और टेसा का होना न होना'। 2)अशोक विश्वनाथन की बांग्ला फिल्म 'शून्य थेके शुरु'।
1994; हंस - 1996


2

बाज़ार है अब वहाँ नशीले पदार्थों का
सुनो, हमने वहाँ देखी थी हरी घास
अनंत
वहीं फुटबॉल खेलते हुए गोलपोस्ट के पास रखा
मेरा कड़ा(1) खो गया था
याद है क्योंकि वह अंतिम कड़ा था
सहिष्णुता लौटी पर कड़ा नहीं
शहर में लौटी आत्मा पर मदहोश ज़रा नहीं

कैसा समय है  नहीं पता मुझे मैं क्या चाहता हूँ
हरी घास, ऐंग्लो इंडियन लड़कियाँ, शहर में आत्मा या
ख़ुदगर्ज़ आलस

1) सिख धर्म की परंपरा में कड़ा एक अनिवार्य परिधान है


3

घर में पड़ी हैं कैशोर्य की कविताएँ
काल्पनिक प्रेमिका का नाम
तीखी नाराज़गी
बाहर दोस्त हैं उनके पिताओं जैसे
अपनी या अपनी बहनों की शादियों के बारे में सोचते हुए
घर-घर शाम खरीदी दूरदर्शन ने
कविताओं में तलाश रहा शहर मैं

साथी कवियों, शहर की ओर से बोल रहा हूँ
रोज़ की दौड़भाग में पैरों के पास छूटे हुओं के लिए
बेचैनी काफी नहीं
शहर के कवियों, हमेशा होंगे हम हारी हुई फौजों के साथ
जीतेंगे आखिर।
शब्दों को गढ़ना शहर का सपना चिरंतन

4

खाली है मकान
वहाँ शाम होने से पहले आसमान होता रक्ताभ
बरामदे पर खड़ी होती वह
पश्चिमा

खाली है
जाने कब वहाँ से आई थीं कवि की प्रेमोक्तियाँ
वक्ष चुंबन और ऐसी बातें
फोटोग्राफ

वह घर बसा रही है
उसकी बच्ची बढ़ रही है
उससे भी प्रबल प्रेमिका होगी वह एक दिन

लौटने पर मुहल्ले में सबसे अधिक खाली दिख़ता है
वह बरामदा
फिर खालीपन बिखरता है पेड़ों पर
ज़मीं आस्मां पर
सौंदर्य-शास्त्र और आधुनिकता की किताबों पर
बूढ़ा दिख़ता है शहर तब

(1994; हंस - 1996) ('डायरी में तेईस अक्तूबर' संग्रह में संकलित)

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