Sunday, May 08, 2016

कभी चाहा था कोई और जीवन


जैसे यही सच है

जैसे समंदरों पार वह इंतज़ार में रहती है कि
मैं फ़ोन करूँ

सोचता हूँ तो कई बार
मन करता है कि फूट पड़ूँ कहूँ कि
तुम्हें कभी नहीं फ़ोन करना चाहता

वह फिर भी इंतज़ार करती है
कि फ़ोन आते ही कहे
सोच रही थी तू मुझे भूल गया होगा
मैं कहता हूँ अच्छा

कभी नहीं कहता कि काश भूल पाता
काश कि जन्म लेते ही किसी और सृष्टि में
चला गया होता

मेरा घर सचमुच ही किसी और ग्रह में है
अपने घर में बैठा रहता हूँ
महीनों बाद मिलता हूँ
फिर भी अपने ही ग्रह में होता हूँ
गर्म दाल-भात और आलू-पोस्ता खाते हुए
भीगता रहता हूँ ग्रहों पार से आते
उसके रुके हुए आँसुओं में

उसकी झुर्रियों में अब संतोष नहीं दिखता
कि मैं उंगलियाँ चाट कर खा लेता हूँ
महीनों बाद उसके हाथों का बना

साल दर साल चाह कर भी नहीं कह पाऊँगा
कि मैंने कभी चाहा था कोई और जीवन।
                                     ('कोई लकीर सच नहीं होती' संग्रह से)

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