Monday, January 18, 2016

जैसे कोई पिता सबके सामने हँसते हुए भी रोता है

हैदराबाद विश्वविद्यालय में रोहित वेमुला की मौत के हादसे से लाखों लोग सदमे में हैं। मैं देख रहा हूँ कि ऐसे वक्त भी कुछ लोग छात्रों की योग्यता पर सवाल उठा रहे हैं। कैसे निर्दयी लोगों से घिरे हैं हम! 
पिछले हफ्ते परवेज हूदभाई का व्याख्यान करवाया था और फिर संजय जोशी ने प्रतिरोध के सिनेमा पर हमारे यहाँ बातचीत की थी। एक ताज़गी सी आ गई थी। पर कल शाम से मन खिन्न है।


हिंसा

हिंसा किसी भी खयाल में होती है

कुदरत ने दी यह फितरत कि

सोचने मात्र से कहीं किसी को रुला बैठते हैं हम

कभी जीव हो जाता है निर्जीव


जो कुछ देखता हूँ ज़ेहन के दरवाजों से

अंदर जा बसता है

चाहता हूँ कि छोटी बातें करूँ

कैसे हैं आप और घर परिवार कैसा है जैसी

जो सोचता हूँ वह रुक जाता है अचानक आ बसे

दृश्यों में जैसे कोई पिता सबके सामने हँसते हुए भी रोता है

कि उसकी बेटी बड़ी हो गई है

यूँ मकसद बनता है चमकीले दृश्यों का

आते हैं जो धरती के अंजान कोनों से चीख बन।

कितनी फिल्में देखूँ कि जान लूँ

कि हर ओर एक ही राग, एक ही विराग।


फिल्में बनती रहती हैं

निहतों के नाम गिने जाते हैं

राजा जी साल दर साल हवा में मिठास घोलते हैं

हवा ज़हरीली होती रहती है। 

(वागर्थ -2016) 

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