Saturday, January 02, 2016

प्रवासी भारतीय और हम


प्रवासी भारतीयों से एक संवाद
-'गर्भनाल' के ताज़ा प्रवासी भारतीय विशेषांक में प्रकाशित लेख

इसके पहले कि मैं प्रवासी भारतीयों से संवाद स्थापित करने की कोशिश करूँ, मैं अपने बारे में कुछ कह लूँ। इसे एक तरह से अपने 'क्रीडेंशल' स्थापित करना भी कह सकते हैं।
मैं कुल मिलाकर तकरीबन साढ़े आठ साल यू एस ए में रहा हूँ। इसके अलावा इंग्लैंड के ब्रिस्टल में तीन गर्मियाँ बिताई हैं। एक बार दो हफ्तों के लिए जर्मनी में भी रहा हूँ। इसलिए प्रवासी होने का कुछ तज़ुर्बा मुझे है। ...
आजकल प्रवासी भारतीयों की चर्चा आम होती रहती है। भारतीय राजनीति में उनकी रुचि पहले से अधिक हो, ऐसा नहीं है, पर वह पहले से अधिक दिखती है। इधर केंद्र में वर्तमान सत्तासीन दल ने प्रवासी भारतीयों को साथ जोड़ने की कोशिशें बढ़ाई हैं। इस पत्रिका के संपादक ने ध्यान दिलाया है कि"मेक इन इंडिया, स्किल इंडिया, क्लीन इंडिया, डिजिटल इंडिया, क्लीन गंगा" जैसे कई नारों के साथ प्रवासी भारतीयों को जोड़ा गया है। यह कहना ग़लत होगा कि सभी प्रवासी भारतीय एक जैसी सोच रखते हैं, पर अक्सर मीडिया में वर्तमान सरकार के साथ सहमति जताने वाले प्रवासी बंधु आक्रामक रुख के साथ दिखलाई देते हैं। लगता है जैसे कि कोई बड़ी लड़ाई छिड़ गई है, जिसके एक ओर सरकार समर्थक हैं तो दूसरी ओर सरकार विरोधी हैं। सोशल मीडिया में बड़ी तादाद में अभद्र और गाली गलौज भरी भाषा के साथ चिल्ल-पों दिखलाई पड़ती है। इस तरह से देखने पर संवाद की स्थिति नहीं रह जाती। अलग-अलग विषयों पर उनकी अपनी जटिलताओं को लेकर संवाद हो सकता है।
आज़ादी के बाद से अब तक भारत में राष्ट्रवादी सोच का वर्चस्व रहा है। हम सब अपने देश पर गर्व करते हुए, यह मानते हुए कि हमारी परंपराएँ, हमारे संस्कार सर्वश्रेष्ठ हैं, बड़े हुए हैं। चाहे क्रिकेट के मैच हों या आतंकवाद पर बहस, हमलोग अधिकतर यह मानकर चलते हैं कि हमें भारत के साथ रहना है। इसमें अचरज की कोई बात नहीं है। सारी दुनिया में हर मुल्क में लोग इसी तरह सोचते हैं। वे अपनी परंपराओं को, अपनी संस्कृति को औरों से बेहतर मानते हैं। कहा जा सकता है कि स्थायित्व के लिए आम लोगों में ऐसी सोच, जिसे अक्सर ग़लती से देशभक्ति कह दिया जाता है, होनी चाहिए। यह देशभक्ति नहीं हो सकती, क्योंकि इस तरह की सोच अंततोगत्वा मुल्कों के बीच स्पर्धा और जंग लड़ाई मार तक ले जाती है, जिसेस किसी देश का कोई भला नहीं होता।
बहरहाल, राष्ट्रवाद को देशभक्ति मानकर, विकसित पूँजीवादी मुल्कों में प्रवास में पहुँचे भारतीय को कितनी तकलीफ होती होगी, इसका अंदाज़ा लगाया जा सकता है। वैसे अधिकतर तो गए ही इस वजह से हैं कि उन्हें भारत में रहने की तकलीफ थी। अफ्रीका या दुनिया के और ग़रीब इलाकों में गए भारतीयों में ऐसी उत्तेजना कम दिखती है, जैसी अमेरिका में पहुँचे देशवासियों में है। अमेरिका के और दीगर और मुल्कों में गए प्रवासियों में क्या फर्क है?
उन्नीसवीं सदी के आखिर से ही भारत के कई इलाकों से लोग अमेरिका में जाते रहे हैं। इनमें से पंजाब से गए कई लोग कैलिफोर्निया में बड़ी ज़मीनों में आलू की खेती करते थे और पोटेटो किंग भी कहलाए। उनकी बढ़ती संपन्नता के कारण उनके साथ भेदभाव भी बढ़ने लगा और बीसवीं सदी के बीचोंबीच नागरिक अधिकार और भदभाव के खिलाफ पहले कुछ मुकदमे भी ऐसे भारतीय प्रवासियों ने लड़े। पर पचास के दशक से यू एस ए में कामगार भारतीयों को आने की अनुमति नहीं रही। इस मामले में कनाडा और ब्रिटेन अलग हैं, वहाँ आज भी कामगार भारतीय, मुश्किल से सही, जाते रहते हैं, पर यू एस ए में ऐसे लोगों का जा पाना असंभव ही है। पर शुरूआती दौर के उन्हीं प्रवासियों ने ग़दर पार्टी बनाई और भारत की आज़ादी की लड़ाई में मुकम्मल जगह बनाई। पंजाब में आज भी उन्हें गदरी बाबा के नाम से याद किया जाता है। ऐसे ही बंगाल के एक नरेंद्र भट्टाचार्य थे, जो बाद में मानवेंद्र नाथ रॉय कहलाए और बीसवीं सदी के क्रांतिकारी और मानवतावादी महान चिंतकों में गिने गए।
यू एस ए में उच्च-शिक्षित और अव्वल दर्जे की काबिलियत होने के बावजूद प्रवासी भारतीयों को कई तरह के भेदभाव सहने पड़े हैं। इसके खिलाफ वे मुखर रहे हैं। पर पिछली कई सदियों से अफ्रीकी मूल के लोगों ने नस्लवाद के खिलाफ जिस तरह का संघर्ष किया है और आज भी कर रहे हैं, उसमें हाल में यू एस ए आए तीन पीढ़ियों के भारतीयों की भूमिका नहीं के बराबर रही है। इतना ही नहीं, भारतीयों में काले लोगों के प्रति नस्लवादी रवैया भारत में तो है ही, प्रवासी भारतीय अमेरिका और ब्रिटेन में भी ऐसे ही पेश आते हैं। बहुत कम लोग ऐसे होते हैं जो सामाजिक बराबरी के लिए लड़ रहे लोगों के साथ मिलकर आवाज़ उठाते हों। हाल में सीएटल में क्षमा सावंत इनमें से एक प्रमुख नाम हैं।
मुझे अपनी यूनिवर्सिटी के दिन याद आते हैं1984 में मैं पी एच डी की थीसिस खत्म करने के मोड़ पर था। दक्षिण अफ्रीका में नस्लवाद के खिलाफ आंदोलन विश्व-व्यापी बन चुका था। भारत दशकों से दक्षिण अफ्रीका के खिलाफ आर्थिक नाकेबंदी की पहल करता रहा और संयुक्त राष्ट्र संघ में भारत और गुट निरपेक्ष देशों के बहुमत से पारित मत के खिलाफ सुरक्षा परिषद में अमिका और ब्रिटेन वीटो का उपयोग करते रहे। सत्तर के बाद के दशक में एक बार अफ्रीकी मूल के अेमेिकी छात्रों ने नस्लभेद के खिलाफ आंदोलन छेड़ दिया था। उस वक्त के दूसरे आंदोलनों की तरह यह भी धीरे धीरे ढीला पड़ गया। पर अस्सी के शुरुआती सालों में ओलिवर तांबो के नेतृत्व में (नेल्सन मांडेला जेल में थे) अफ्रीकी नैशनल कांग्रेस ने पश्चिमी मुल्कों में अपनी ज़मीन बढ़ाने के लिए मुहिम तेज कर दी थी। संयुक्त राष्ट्र संघ की ओर से अपार्थीड के खिलाफ सूचनाएँ खुले आम बाँटी जा रही थीं।
अमिरिकी कैंपसों में 1984 में हवा सी चल पड़ी थी कि दक्षिण अफ्रीका को लेकर कुछ करना है। अमिकी व्यापारी वर्ग आर्थिक नाकेबंदी के पूरी तरह खिलाफ था। प्रिंस्टन जैसे कई विश्वविद्यालय के ट्रस्ट के पैसे ऐसी कंपनियों में निवेशित थे जिनका ताल्लुक दक्षिण अफ्रीका से था। हमलोगों ने 'डाइवेस्टमेंट' यानी निवेश किया पैसा वापस लो का आंदोलन शुरु किया। मैंने दक्षिण अफ्रीका के चर्चित उपन्यासकार ऐलन पैटन की पुस्तक 'क्राई बीलवेड कंट्री' की तर्ज पर नारा बनाया 'क्राई बीलवेड प्रिंस्टन'1984 की प्रिंस्टन की रीयूनियन परेड में जाली ताबूतों के साथ हम जबरन शामिल हो गए।
1985
की मई के पहले हफ्ते में मेरा थीसिस डिफेंस हो गया और मैं औपचारिक रुप से पी एच डी की डिग्री पाने के लिए पास हो चुका था। फिर एक दिन आंदोलन की समिति ने तय किया कि रात को मुख्य प्रशासनिक बिल्डिंग के पास एक चर्च में छिपे रहेंगे और सुबह मुँह अँधेरे बिल्डिंग पर अधिकार कर लेंगे। सारी रात हम गीत गाते रहे। फिर सुबह करीब नब्बे से सौ लोग नासाउ बिल्डिंग के अलग अलग गेटों पर खड़े हो गए। नासाउ बिल्डिंग प्रिंस्टन की वह ऐतिहासिक इमारत है जहाँ अमरीकी आजादी की लड़ाई के दौरान काँग्रेस की सभाएँ होती थीं। पुलिस हमें राइट्स पढ़कर सुना रहाृी और हम 'डेथ टू अपार्थाइड, फ्री मांडेला' नारे लगाते रहे। पाँच घंटे जेल परिसर में हल्ला गुल्ला मचाकर कागजात साइन कर हमलोग आ गए। बाद में एक प्रसिद्ध वकील ने मुफ्त में हमारी ओर से पैरवी का निर्णय लिया। यूनिवर्सिटी काउंसिल ने अपनी अलग सुनवाई की।
आज अमेरिका जैसे देश में प्रवासी भारतीयों को जो बराबरी का माहौल दिखता है, उसको बनाने में संघर्ष का इतिहास क्या है, इस बारे में उनको कितनी जानकारी है? भारत की अंदरूनी स्थिति और प्रवासियों की भूमिका पर आने से पहले हमें यह पूछना चाहिए कि अगर सचमुच कोई भरतीय अस्मिता प्रवासियों में है, तो उन्होंने अपने नए मुल्कों में बसे दक्षिण एशियाई लोगों के इतिहास के बारे में जानने की क्या कोशिश की है। इस सवाल का जवाब हताशाजनक है। मुझे अचरज नहीं होगा अगर हम पाएँ कि अमेरिका में बसे अधिकतर प्रवासियों को ग़दर पार्टी के बारे में ही कुछ भी न पता हो। कनाडा और यू के की बात जरा अलग है, क्योंकि वहाँ प्रवासियों की संस्कृति उच्च जाति-वर्ग की संकीर्णताओं से उस हद तक प्रभावित नहीं है।
आज भारत में छात्र शिक्षा के बुनियादी अधिकारों को लेकर लड़ रहे हैं। देश भर में किसान मजदूर अलग अलग मुद्दों पर व्यवस्था के साथ लड़ रहे हैं। क्या भारतीय प्रवासी जिन सुविधाओं के लिए अपने नए मुल्कों में माँग करते हैं, उसका बहुत छोटा सा हिस्सा भी अपने हर देशवासी को देना चाहते हैं? फिलहाल तो लगता है कि भारत में रह रहे सुविधा-संपन्न लोगों की तरह ही अधिकतर प्रवासी भारतीय भी भारत के अधिकांश लोगों को अनदेखा ही करते हैं। प्रवासी भारतीयों के लिए भारत में कई तरह की सुविधाएँ विकसित हुई हैं, जिनका कुछ फायदा हमारे जैसे मध्य-वर्ग के लोगों को मिलता रहता है, पर देश की बहुत बड़ी जनसंख्या इनसे बिल्कुल ही वंचित है। यहाँ तक कि जिन नागरिक अधिकारों के लिए अमेरिका में वंचितों ने संघर्ष किया, वे हमारे लोगों से छीने जा रहे हैं; हाल में हरियाणा में पंचायत चुनावों में मतदान का हक ग़रीबों से यह कहकर छीना गया है कि उन्हें पर्याप्त तालीम नहीं मिली है। क्या भारतीय प्रवासी कभी इन बातों के बारे में सोचते हैं? अगर हाँ, तो एक बुनियादी बात जो समझनी पड़ेगी, वह यह है कि हम सरकार के पक्ष-विपक्ष में इस तरह खुद को खड़ा कर कोई संवाद नहीं कर सकते कि जैसे कोई स्थानीय क्रिकेट मैच में एक टीम के साथ हम हैं। हमें खुद से पूछना पड़ेगा कि हम लोगों के पक्ष में या विपक्ष में हैं। अगर इस संदर्भ में हम सरकार को या किसी को भी जनहित के खिलाफ पाते हैं तो हमें अपना पक्ष चुनना होगा।
बदकिस्मती से अब तक का मानव-इतिहास लोगों को बाँट कर लिखा गया है। कुदरत ने हमें काबिलियत दी कि हम तक्नोलोजी की ईजाद कर पाए, हमने सवाल पूछे और कुदरत के रहस्यों को समझन की कोशिश की। पर इसे मानव के लिए कुदरत की अनोखी देन न कह कर हमने इसे ग्रीको-रोमन, प्राच्य आदि सभ्यताओं में बाँट दिया। प्रवासी भारतीय अक्सर खुद को भारतीय संस्कृति के प्रतिनिधि और प्रचारक मानते हैं। यह कितनी हास्यास्पद बात है कि भयंकर गैरबराबरी वाले दक्षिण एशियाई मुल्कों से आए कई लोग विदेशों में खुद को वसुधैव कुटुंबकम की संस्कृति के वारिस घोषित करते हैं! इनके रहन-सहन, पहनावे, खान-पान, किसी भी चीज़ में पूरब की झलक कम ही होती है, पर ये मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारों पर करोड़ों खर्च कर भारतीय संस्कृति के स्वयंभू पहरेदार बने फिरते हैं। इनके पैसों से भारत की राजनीति में भूचाल आते रहते हैं, लोकतंत्र में अवांछित हस्तक्षेप कर ये लोग दक्षिण एशिया में रहने वाले लोगों की बदहाली बढ़ाते रहते हैं और इनको यह गुमान है कि ये भारत के प्रतिनिधि हैं। यहाँ तक कि पिछड़े तबकों के लिए आरक्षण का खुलकर विरोध करते ये लोग अपने लिए अधिकांश संस्थानों में आरक्षण लिए हुए हैं, पर इनको कोई शर्म नहीं। भारत में बहुत कम ही ऐसे शिक्षा संस्थान रह गए हैं जहाँ एन आर आई सीट्स न हों। अगर अपने बच्चे नहीं तो भारत में रह रहे अपने किसी संबंधी के बच्चों को इन सीटों पर ग़लत ढंग से दाखिला करवाने वाले लोग कैसे खुद को भारतीय हितों के रक्षक कह सकते हैं। सच्चाई यह है कि दुनिया के हर इलाके में मिलती-जुलती संस्कृतियाँ रही हैं, जिनमें भौतिक परिस्थितियों के मुताबिक थोड़े बहुत फर्क रहे हैं। आधुनिक पश्चिमी सभ्यता और पुरानी ग्रीको-रोमन सभ्यता में वैसा ही फर्क है जैसा हमारे यहाँ बड़े शहरों और गाँवों में है।
सही है कि हर किसी के बारे में ऐसा सामान्यीकरण करना ग़लत होगा। बहुत सारे लोग भले हैं और आर्थिक सहायता से लेकर अलग-अलग कई तरीकों से भारत में रह रहे लोगों की मदद कर रहे हैं। इसलिए सत्तासीन राजनैतिक दल भी "मेक इन इंडिया, स्किल इंडिया, क्लीन इंडिया, डिजिटल इंडिया, क्लीन गंगा" जैसे नारों को उछालकर उनका फायदा उठाना चाहता है। पर सचमुच जो भला चाहते हैं, उन्हें सार्थक हस्तक्षेप के लिए कई बातों पर सोचना पड़ेगा, जिनमें से कुछ ये हैं -
1. पश्चिमी मुल्कों में बड़ी तादाद में बच्चे सरकारी स्कूलों में जाते हैं और वहाँ बिना खर्च के या बहुत कम खर्च में पढ़ाई लिखाई करते हैं। भारत में क्रमबद्ध ढंग से सरकारी स्कूलों को बंद किया जा रहा है या ऐसी स्थितियाँ पैदा की जा रही हैं कि वे सुचारु रूप से चल न पाएँ। इसके खिलाफ देश भर में आंदोलन हो रहे हैं, पर केंद्र या राज्य सरकारों के कानों में जूँ तक नहीं रेंग रही है। तालीम के निजीकरण के साथ अंग्रेज़ी को जबरन शिक्षा के माध्यम के रूप में थोपा जा रहा है। इससे हमारी संस्कृति तो क्या, भाषाएँ खत्म होंगी तो इंसान के रूप में हमरी पहचान खत्म हो जाएगी। क्या पढ़े-लिखे प्रवासी भारतीय हमारी भाषाओं में लिखा साहित्य पढ़ रहे हैं? अगर हाँ तो यहाँ साहित्य उत्सवों के नाम पर अंग्रेज़ी वालों की उछल-कूद क्यों होती रहती है? कुछ लोग शोर मचाकर खुद को इस भ्रम में डाल लें कि अब अंग्रेज़ी भारतीय ज़ुबान बन गई है, पर ऐसा वाकई होने में अभी कुछ सदियाँ और लगेंगी। सही कदम यह होगा कि सरकारी मदद से, और स्वायत्त प्रशासन की, समान स्कूली व्यवस्था लागू हो (जैसे अमेरिका के नेबरहुड स्कूल हैं) और हर बच्चे को उसकी अपनी भाषा या सबसे करीब की भाषा में तालीम दी जाए।
2. विकास के नाम पर ग़रीब आदिवासियों और दूसरे तबकों को उनकी ज़मीनों से उखाड़ा जा रहा है, और इस पर किसी भी तरह के विरोध को नक्सलवाद का नाम देकर बेरहमी से कुचला जा रहा है। अगर सचमुच विकास का मतलब लोगों का विस्थापन है, तो इस प्रक्रिया में उनकी भागीदारी सुनिश्चित करनी पड़ेगी। इसके लिए शिक्षा जैसे बुनियादी अधिकारों को मजबू करना पड़ेगा। अभी सरकारी आँकड़ों के मुताबिक एक चौथाई जनता अनपढ़ है। सरकार और संपन्न वर्गों का रवैया ग़रीब तबकों के साथ ऐसा है जैसे कि वे सड़क पर घूमते जानवरों जैसे हैं। देसी सरमाएदार अपने फायदे के लिए देश के बहुसंख्यक लोगों के हितों के खिलाफ विदेशी पूँजी के साथ मिलकर संसाधनों की बेतहाशा लूट में लगे हुए हैं और सरकार इसी को विकास कहती है।
3. जनसंख्या के बड़े हिस्से में भयंकर ग़रीबी और भुखमरी के बावजूद सरकार सुरक्षा खाते में राष्ट्रीय बजट का एक चौथाई लगाती है। प्रवासियों को यह समझना होगा और हमारी सरकारों पर दबाव डालना होगा कि दुनिया के हर इलाके में इंसान की एक सी तकलीफें हैं और आपसी विवादों को जंग लड़ाई से नहीं, बल्कि बातचीत के द्वारा सुलझाना होगा। हमारी सरकारें औरों से बेहतर हैं या नहीं, इस बात को प्रवासी जिस तरह समझ सकते हैं, देश के अंदर रह रहे लोग उस तरह नहीं समझ सकते। देश की सुरक्षा के नाम पर तैयार की गई फौजों और अलग-अलग तरह के पुलिस बलों को अक्सर आम ग़रीब-गुरबा के खिलाफ इस्तेमाल किया जाता है। इस तरह देश में लोकतंत्र को कमजोर कर संपन्न तबकों के हितों की रक्षा की जाती है।
4. दक्षिण एशिया का इतिहास उतना ही विविध है जितना कि यूरोप का है। जैसे सारे यूरोप को किसी एक सभ्यता में समेट लेना नासमझी है, वैसे ही किसी एक भारतीय सभ्यता की बात करना भी नासमझी है। भौगोलिक कारणों से अतीत में दक्षिण एशिया में दुनिया भर से लोग आते जाते रहे, ज्ञान-विज्ञान का विकास प्रसार हुआ, पर यह भी सच है कि सामाजिक भेदभाव की पराकाष्ठा भी यहीं थी, जिसकी वजह से बहुसंख्यक लोगों को पठन-पाठन और बौद्धिक कर्म से दूर रखा गया। इसका नतीज़ा आज भी हम भुगत रहे हैं। विशेष जाति और वर्ग से आए एक निहायत ही छोटे हिस्से के लोग पूरे देश पर काबिज हैं। इस वजह से सही काबिलियत सामने नहीं आ पा रही है और इम्तहानों में परिणामों के बल पर दोयम दर्जे के लोग सत्ता के हर कोने पर ऊपर बैठे हुए हैं। धाँधलियाँ आम हैं, जहाँ 'दलक' जातियों के लोग एक दूसरे की मदद कर ग़लत ढंग से नौकरियों लेते-दिलाते हैं।जिन्हें लगता है कि वे भारत के हितों के लिए काम करना चाहते हैं, उन्हें ब्राह्मणवाद और भारतीय सभ्यता की एकांगी पहचान से हटकर हर तरह की गैरबराबरी के खिलाफ आवाज़ उठानी होगी।
इन बातों को ध्यान में रख कर यह सवाल उठाना लाजिम है कि मेक इन इंडिया तो ठीक, पर किस के लिए? क्या चीन की तरह हमारे यहाँ भी सस्ते श्रम का बेइंसाफी से फायदा उठाने का षड़यंत्र हो रहा है? कौ नहीं चाहता कि 'स्किल' बढ़े, स्वच्छ परिवेश हो, डिजिटल या और नई तक्नोलोजी का फायदा हर नागरिक उठाए, पर क्या सबके हाथ सस्ता मोबाइल पकड़ा देना ही डिजिटल कहलाता है? प्राथमिक शिक्षा में नामांकित बच्चों में बड़ी संख्या में मिडिल स्कूल आते-आते पढ़ना छोड़ क्यों दे रहे हैं? गंगा तो क्लीन होनी ही चाहिए, पर गाँव-गाँव से पीने का पानी खत्म क्यों हो गया है? जब प्रवासी भारतीय एक या दूसरी राजनैतिक पार्टी के लिए मोर्चाबंदी कर खड़े हो जाते हैं तो वे दक्षिण एशिया के मुल्कों का भला नहीं, नुकसान कर रहे होते हैं। यह बात समझन पड़ेगी कि लोकतांत्रिक ढाँचे के अंदर बराबरी के लिए लड़ाई चल रही है, चलती रहेगी और इस लड़ाई में आज जैसी सरकार के पक्ष में खड़े लोग जनता के विरोध में ही होंगे।

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