Monday, March 09, 2015

हमारे लिए हर सुबह नई बन कर आती है


एक ग़लत बटन

पल में सब गायब। फिर लिखो
तो प्रेम वही नहीं होता। संतुलित स्याह सा हो जाता है।
उसमें पहले कभी न दिखे घाव पकने का डर समाया होता है।

राजनेता ताज़िंदगी इस फेर में रहते हैं कि उनके अतीत ऐसे बटन
दबाकर उड़ा दिए जाएँ।

नहीं उड़ते।

कुछ अड़ियल
ट्रांज़िस्टर्स में हत्याएँ, लूट, बलात्कार, यूँ जम जाते हैं कि कोई उन्हें उड़ा नहीं सकता।
किंवदंतियाँ हैं कि तोड़ जला देने पर भी ये जीवंत रहते हैं। हत्यारे रातों में काँपते, घबराते, सीनों के भार
तले सपनों में छिपते रहते हैं; हर सुबह उन्हें यकीन नहीं होता कि वाकई सुबह हुई है। रेंगते हुए खिड़कियों पर आकर
झाँक-झाँक देखते हैं कि भीड़ उन फाइलों के हवाले से बगीचे का घास तो नहीं उखाड़ रही।

हम तुम खो बैठते हैं मेहनत से सँजोए प्यार के पल। रोओं से भी कम चौड़ाई के ट्रांज़िस्टर्स वायलिन पर शोकगीत गाते हैं। धीरे-धीरे फिर से हम रोपते हैं छुअन, चुंबन आदि तंतु। हमारे लिए हर सुबह नई बन कर आती है। कभी खोए पलों को याद कर हम शर्मा कर एक दूसरे को देखते हैं।

निकल पड़ते हैं सपने बुनते हुए।
(जलसा - 2015)

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