Thursday, February 19, 2015

मिस्टा' कुर्त्ज़ ही डेड:‍ 'अंधकूप' की भूमिका


 
वाग्देवी प्रकाशन से प्रकाशित जोसेफ कोनराड के उपन्यास 'हार्ट ऑफ डार्कनेस' के मेरे किए अनुवाद 'अंधकूप' की भूमिका यहाँ डाल रहा हूँ, पर उसके पहले किताब के आने की खबर पर मानवाधिकार कार्यकर्ता हिमांशु कुमार की टिप्पणी:
सलवा जुडूम पर अपने फैसले में सर्वोच्च न्यायालय ने इसी उपन्यास के अंश का उपयोग किया था: 
 जब हम, हमारे सामने आए इन मामलों पर विचार कर रहे थे तो हमें जोसेफ कोराड के प्रसिद्ध उपन्यास ‘हाॅर्ट ऑफ डार्कनेस’ की याद आई। कोनराड ने अंधकार के तीन स्तरों की कल्पना की हैः 
1. जंगल का अन्धकार, जो जीवन और उदात्त या लोकोत्तर इस संघर्ष का प्रतिनिधित्व करता है संसाधनों के लिए औपनिवेशिक विस्तार का अंधकार और अंत में ऐसा अन्धकार, जिसका प्रतिनिधित्व अमानवता और बुराई करती है। मान लीजिए कि किसी को सर्वोच्च ताकत दे दी जाती है जिसके लिए वह किसी के प्रति जवाबदेह नहीं है। इसके साथ ही असीम अधिकार हासिल करने वाले को यह गुमान हो जाता है कि जो वह कह रहा है वही सबसे व्यवहारिक और अनिवार्य चीज है। ऐसे में वह इस तीसरे अन्धकार का शिकार हो जाता है। 
2. जोसेफ कोनराड का उपन्यास अफ्रीका के उष्णकटिब्न्धीय; या ट्रोपिकल जंगलों के संसाधनों की सम्पन्नता वाले अन्धकार में स्थित है। यहाँ यूरोपीय ताकतें अपनी साम्राज्यवादी-पूँजीवादी और विस्तारवादी नीतियों के साथ सक्रिय हैं। ये ताकतें हाथी दाँत के अपने क्रूर व्यापार को ज्यादा फैलाने की कोशिश करती हैं। जोसेफ कोनराड यह बताते हैं कि इस काम को सही बताने वाले लोगों की दिमागी अवस्था कैसी होती है। कोराड के अनुसार इनकी दिमाग की अवस्था बहुत ही वीभत्स और घिनौनी होती है। ये लोग बिना अपनी ताकत का इस्तेमाल करते वक्त किसी विवेक, मानवता या संतुलन का ध्यान नहीं रखते हैं। उपन्यास का मुख्य चरित्र कुर्त्ज़ मरते वक्त कहता है ‘हाॅरर!, हाॅरर!’; बीभत्स, बीभत्स। कोराड अपने व्यक्तिगत अनुभवों के आधार पर 1890 से 1910 के बीच कांगों की वास्तविक परिस्थितियों के बारे में बताते हैं। उनके अनुसार, यह ‘मानव चेतना के इतिहास पर ध्ब्बा लगाने वाली भ्रष्टतम लूट थी।
3. हमने छत्तीसगढ़ के हालात के बारे में प्रतिवादियों द्वारा दिए गए तर्कों को विस्तार से सुना। इससे हमारे सामने यह बात पूरी तरह स्पष्ट हो गई कि प्रतिवादियों ने राज्य के कार्य करने के ऐसे तरीकों को अपनाया है जिससे संवैधनिक मूल्यों की गंभीर उपेक्षा हुई है। इससे राष्ट्रीय हित को गंभीर नुकसान हो सकता है। खासतौर पर इससे मानवीय गरिमा, समूहों के बीच बंधुत्व तथा राष्ट्रीय एकता और अखंडता सुनिश्चत रखने के इसके लक्ष्यों को गहरी चोट पहुँच सकती है। मानवता के सामूहिक अनुभव से यह बात स्पष्ट होती है कि असीमित सत्ता खुद अपना सिद्धांत बन जाती है। अपनी सत्ता का उपयोग ही इसका मकसद बन जाता है। इसका नतीजा लोगों के अमानवीय बनाने के रूप में सामने आया है। इसके कारण साम्राज्यवादी शक्तियों ने प्राकृतिक संसाधनों के लिए धरती का असीमित दोहन किया है। दरअसल इसी के कारण दुनिया को दो भयानक विश्व युद्धों का सामना करना पड़ा है। असीमित सत्ता के बारे में मानवता के इस सामूहिक अनुभव को देखते हुए आधुनिक संविधानवाद यह प्रावधान करता है कि राज्य की सत्ता का उपयोग करने वाले यह दावा नहीं कर सकते हैं कि राज्य किसी कानूनी रोक-टोक के बगैर किसी के भी खिलाफ हिंसा कर सकता है उन्हें अपने नागरिकों के खिलाफ इस तरह का दावा करने की इजाजत तो बिल्कुल ही नहीं दी जा सकती है। इसके अलावा, आधुनिक संविधानवाद ने इस अवधारणा को भी स्वीकार किया है कि हर नागरिक की स्वाभाविक मानवीय गरिमा होती है। इस केस की सुनवाई से छत्तीसगढ़ के कुछ जिलों की घटनाओं और परिस्थितियों की एक धुंधली तस्वीर सामने आती है। हम इससे सिर्फ इसी नतीजे पर पहुँच पाए कि प्रतिवादी हमें संवैधनिक कार्रवाई के ऐसे रास्ते की ओर ले जा रहे हैं, जहाँ इन सबके अंत में हमें भी यह कहना पड़ेगा हॉरर हॉरर; बीभत्स, बीभत्स।

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यह जानकर सचमुच बहुत हौसला बढ़ता है कि मैंने ऐसी किताब का अनुवाद किया है, जिसमें से सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों ने उद्धरण इस्तेमाल किए हैं। अब पढ़िए भूमिका जो मैंने लिखी है - 
भूमिका
"मिस्टा' कुर्त्ज़ ही डेड" - टी एस एलियट ने अपनी प्रसिद्ध कविता 'द हॉलो मेन (खोखले लोग)' की शुरूआत जोसेफ कोनराड के उपन्यास 'हार्ट ऑफ डार्कनेस' से ली गई इस साधारण-सी उक्ति (मिस्टर कुर्त्ज़ गुजर गया) से की हैकोनराड के अपने शब्दों में - 'यह एक ऐसे पत्रकार के बारे में एक स्वच्छंद कहानी है जो (अफ्रीका के) भीतरी प्रदेश में किसी अड्डे में मैनेजर बन कर जाता है और कबीलाई लोगों का देवता बन जाता है। इस तरह से देखें तो यह ठिठोली सी लगती है, पर ऐसा है नहीं। ' 1 वाकई बीसवीं सदी का श्रेष्ठ कवि उपन्यास के मुख्य चरित्र की मौत की घोषणा को अपनी प्रसिद्ध कविता की प्रस्तावना की तरह कहता है, तो सोचना पड़ता है कि आखिर उस चरित्र में क्या ऐसी खासियत है।
कोनराड ने कांगो के बेल्जियम के अधीन वाले औपनिवेशिक क्षेत्रों में हो रहे बेइंतहा ज़ुल्म से प्रभावित होकर यह उपन्यास लिखा था। उन्नीसवीं सदी के अंतिम दशक तक अफ्रीका महाद्वीप के अंदरूनी इलाकों में यूरोपी साम्राज्यों की पैठ बढ़ने लगी थी और हाथी-दाँत और दूसरी वन-संपदा की बेशुमार लूट हो रही थी। इस लूट के लिए अफ्रीका के मूल निवासियों के साथ जानवरों से भी बदतर सलूक किया जाता था। कोनराड स्वयं एक बेल्जियन स्टीमर के कप्तान रह चुके थे और उन्होंने समुद्री यात्राओं और नौ-वाहनों के अपने अनुभव का बखूबी से इस उपन्यास के लिखने में इस्तेमाल किया। इस उपन्यास को पढ़कर यूरोप के उदारवादी हलकों में हलचल मची और उपनिवेशों में बेहतर स्थितियों के पक्ष में सहानुभूति का माहौल बना और कुछ हद तक प्रशानिक सुधार भी किए गए।
एक भारतीय पाठक के लिए 'हार्ट ऑफ डार्कनेस' का पहला पाठ उपनिवेशवाद विरोध होना स्वाभाविक है। अफ्रीकी देशों में भी बीसवीं सदी में यूरोपी साम्राज्यवाद के खिलाफ संघर्ष भारत के साथ-साथ ही चला। अधिकतर अफ्रीकी देश भारत के बाद ही आज़ाद हो पाए, पर साम्राज्यवादी ताकतों के खिलाफ यह लड़ाई कई मायनों में साझी थी। अफ्रीकी और एशियाई देशों में आज़ादी की लड़ाई ने परस्पर प्रेरणा ली। आधुनिक यूरोपी साम्राज्य अपने पहले आए साम्राज्यों से कई मायनों में अलग थे, क्योंकि उन्नीसवीं सदी में यूरोप के अधिकतर मुल्कों में औद्योगिक क्रांति का असर दिखने लगा था और पारंपरिक समाज की तुलना में मानव-मूल्यों में बड़ी तब्दीलियाँ हो चुकी थीं। पर अफ्रीकी और एशियाई देशों में जीवंत परंपराएँ थीं और इसलिए इन देशों में आज़ादी की लड़ाई को परंपराओं और सभ्यताओं के संघर्ष की तरह भी देखा जाता है। राजनैतिक आज़ादी मिली, पर यूरोप के आधुनिक मूल्यों का वर्चस्व इन देशों में लगातार बढ़ता रहा। आधुनिकता के व्यक्तिवादी और कुदरत पर इंसान की जीत के नज़रिए से होने वाले भयंकर दुष्परिणामों को सारी दुनिया के मानववादी चिंतक देख रहे थे। कोनराड उनमें से एक थे।
'हार्ट ऑफ डार्कनेस' के वैचारिक पक्ष में यूरोपी आधुनिकता पर सवाल उठाने के अलावा मानव नियति पर भी गहरा अवलोकन है। सचमुच यह उपन्यास बुनियादी मानव-मूल्यों में भले-बुरे, दृश्य-अदृश्य और सही-ग़लत जैसे द्वंद्वों की तलाश का आख्यान है। उनकी भाषा में भी अक्सर परस्पर विरोधी मूल्यों के द्योतक शब्द इकट्ठे आते हैं। विरोधाभास का अतिरेक अंततः एक खालीपन पैदा करता है। यही वह डार्कनेस या अंधकार है, जो दरअसल कई रंगों के साथ पेश आता है। शायद इसी कारण से एलियट ने अपनी कविता की शुरूआत इस उपन्यास से ली गई उक्ति से की है।
उपन्यास में भावनाओं की सबसे अधिक सघनता प्रेम-प्रसंगों में दिखती है। इस तरह से इसे एक प्रेम-कथा भी कहा जा सकता है। पर शैली और कथ्य के लिहाज से मूलतः यह एक आधुनिक कृति ही है। इसमें आधुनिकता की आलोचना है, पर यह थॉमस हार्डी और दीगर अंग्रेज़ी रोमांटिक उपन्यासकारों से बिल्कुल अलग अंदाज़े-बयाँ के नए पैमाने गढ़ती है। विक्षिप्तता का अनोखा और सोचा-समझा प्रयोग है, जो महज किसी एक व्यक्ति का मनोरोग नहीं, बल्कि अपने समय और समाज की तमाम विकृतियों का प्रतीक है। यह विक्षिप्तता किस अंधकार से जनमती है, वह खुद अंधकार है या अंधकार के प्रति खिंचे जाते इंसान की नियति की वाहक है, ऐसे कई सवाल यह उपन्यास सामने लाता है। कुल मिलाकर कोनराड का यह उपन्यास इतने आयामों के साथ बीसवीं सदी की शुरूआत में सामने आया (प्रकाशन 1899 में) कि शायद ही किसी और कृति की तुलना इसके साथ की जा सकती है। संभवतः उपन्यास लेखन में प्रारंभिक आधुनिक कृतियों में इसे सबसे बेहतर माना जाना चाहिए। बाद के साहित्यकारों पर उनका व्यापक प्रभाव पड़ा। बीसवीं सदी के अंग्रेज़ी और दूसरी यूरोपी भाषाओं के सभी बड़े रचनाकारों ने इस बात को स्वीकारा है। इनमें एलियट, लॉरेंस, फित्ज़जेरल्ड, फॉकनर, हेमिंग्वे से लेकर मार्ख़ेज़, नायपॉल और रशदी आदि सभी शामिल हैं। उनकी कृतियों पर आधारित या प्रेरित फिल्में भी काफी प्रसिद्ध हुई हैं। वियतनाम की जंग पर बनी फ्रांसिस फोर्ड कोपोला की प्रसिद्ध फिल्म 'एपोकैलिप्स नाऊ' हार्ट ऑफ डार्कनेस पर आधारित है। कथानक के स्तर पर उनके लेखन का विषय भले ही यूरोपी साम्राज्य और उपनिवेशों पर केंद्रित और उनके अपने नौ-वाहनों के अनुभवों पर आधारित रहे, उनकी मुख्य और गहरी चिंता मानव-मन और मूल्यों की गहरी पड़ताल है। उनमें एक खास तरह की दूरदर्शिता थी, जो बाद के समय में और आज भी मानवता और धरती पर छाए घोर संकटों को देखते हुए सार्थक प्रमाणित होती रही है। 1898 में अपने स्कॉट मित्र कनिंगहम ग्रेहम को उन्होंने लिखा: "मानव की त्रासदी उसके कुदरत का शिकार होने में नहीं, बल्कि यह है कि हम इस बारे में सचेत हैं। अपनी गुलामी, तकलीफें, आक्रोश, संघर्षों के बारे में जानकारी मिलते ही हमारी त्रासदी शुरू हो जाती है।” पर वह खुद को त्रासदी का लेखक नहीं मानते थे। ऐसे प्रमाण मौजूद हैं कि निजी जीवन में वह अक्सर अवसाद-ग्रस्त होते थे। बीस साल की उम्र में कर्जा न मिटा माने के ग़म में खुदकुशी की कोशिश भी की थी।
हिंदी के पाठकों के लिए 'हार्ट ऑफ डार्कनेस' का अनुवाद पेश करते हुए हमें खुशी है। कोनराड ने ऐसे शब्दों का इस्तेमाल किया है जो आज या तो उचित नहीं माने जाते या उनके अर्थ बदल गए हैं। गोरों की नज़र में काले लोग हेय थे और 'निगर' शब्द आम प्रचलन में था। हमने इस शब्द को बदला नहीं है। हम 'ब्लैक' के लिए 'अश्वेत' सही नहीं मानते, क्योंकि इसमें 'श्वेत' को संदर्भ की तरह इस्तेमाल किया जाता है। जंगल में लूट के लिए आए गोरों के प्रति व्यंग्य प्रकट करते हुए कोनराड ने उनके लिए 'पिलग्रिम' शब्द का इस्तेमाल किया है। हमने जहाँ तक उचित लगा, इसका अनुवाद 'तीर्थयात्री' रखा और बाद में 'महानुभाव' का इस्तेमाल किया है। स्त्रियों के प्रति कोनराड अपने समय के उदारवादियों जैसी ही सीमित समझ दिखलाते हैं। वे हार्डी की परंपरा से एक सीमा तक ही अलग खड़े दिखते हैं। आदर्श स्त्री का मिथ निश्चित रूप से उन पर भी सवार है। किसी भी रचनाकार की तरह कोनराड के अपने पूर्वग्रह हैं और वे उनके लेखन में दिखते हैं। कठिन परिस्थितियों में जीते हुए उनको समझौते भी करने पड़े थे। अपने लेखन में कहीं भी यूरोपी साम्राज्यवाद की आलोचना करते हुए ब्रिटेन की मिसाल नहीं लेते। इसीलिए कुछ आलोचकों ने कोनराड के लेखन पर आपत्ति भी दर्ज़ करवाई। इस अर्थ में 'हार्ट ऑफ डार्कनेस' विवादास्पद भी रहा। 1975 में लिखे अपने आलेख "ऐन इमेज ऑफ अफ्रीकाः रेसिज़्म इन कोनराड''हार्ट ऑफ डार्कनेस'" में प्रसिद्ध नाईजीरियन उपन्यास लेखक चिनुआ आचीबे ने कोनराड को जन्मजात नस्लवादी कहा। आचीबे का मत है कि यह उपन्यास बड़ी कृति नहीं माना जा सकता, क्योंकि इसमें मानवता के एक हिस्से से उसका व्यक्तित्व छीनकर अमानवीकरण को सराहा गया है। वे कोनराड को प्रतिभाशाली और तड़पता हुआ शख्स मानते हैं, जो (अपने चरित्र मार्लो के जरिए) अफ्रीका के मूल निवासियों को महज 'टाँगें', 'कोण', 'चमकती सफेद आँखों की पुतलियाँ', आदि में संकुचित कर देते हैं। साथ ही वह (डरते हुए) उन मूल निवासियों के साथ अपना एक संबंध भी देख पाते हैं। आचीबे की यह आपत्तियाँ वैसी ही हैं जैसे अक्सर दलित आलोचक प्रेमचंद की रचनाओं में दलित चरित्रों का विवरण आपत्तिजनक मानते हैं। हालाँकि इन आपत्तियों के जवाब आलोचना-साहित्य में दिए जाते रहे हैं, इनको हम दरकिनार नहीं कर सकते और इन पर और विवेचन की ज़रूरत रह जाती है। लोकतंत्र के बारे में भी कोनराड का नज़रिया संकीर्ण ही था। इसकी वजह उनका यह मानना था कि मानव के स्वभाव में लालच, धोखेबाजी आदि प्रवृत्तियाँ हावी हैं और लोकतंत्र में ऐसे स्वभाव के लोगों के सत्तासीन और ताकतवर होने की संभावना बढ़ जाती है। पोलैंड और दीगर मुल्कों के बारे में उनके राजनैतिक विचार समय के साथ बदलते रहे, पर उनके मन में आखिर तक मानव-स्वभाव और संगठित राजनैतिक संरचनाओं के बारे में गहरी निराशा भरी समझ बनी रही।
कोनराड जन्म से अंग्रेज़ी भाषा नहीं बोलते थे। वे जन्म से पोलिश भाषी थे। उनका जन्म 1857 में पहले कभी पोलैंड राज्य के अधीन रह चुके और बाद में रूस के अधीन, आज के यूक्रेन के क्षेत्र में हुआ और शुरूआती परवरिश वहीं हुई। राजनैतिक चेतना उन्हें विरासत में मिली। पिता अपोलो कोर्त्ज़ेनिवोस्की साहित्य और राजनीति में सक्रिय थे।2 उनके नाम के तीन हिस्सों में 'कोनराड', कवि ऐडम मिकीविक्त्ज़ की कविताओं के नायकों के नाम हैं। योसेफ (जोसेफ) नाना का और बीच का नाम त्योडोर दादा का नाम था। रूसी साम्राज्य के खिलाफ पिता की सक्रियता के कारण परिवार को लगातार एक से दूसरी जगह भागते रहना पड़ा। राजशाही ने उन्हें निष्कासित कर दूर ऐसे इलाके में भेज दिया जहाँ मौसम की मार के अलावा ज़मीन भी उपजाऊ न थी। माँ ईवा बॉव्रोव्स्का को बड़ी तकलीफें झेलनी पड़ीं और 1860 में यक्ष्मा से चल बसीं। कोनराड ने भूगोल के अलावा कुछ और पढ़ने-लिखने में रुचि न दिखलाई। उनके मामा ने चिकित्सकों की सलाह पर उन्हें नाविक के काम में लगा दिया ताकि कठिन परिस्थितियों को झेलते हुए अपने त्रासद अतीत और कमज़ोर स्वास्थ्य से उबर सकें। इसके पहले ही कुछ समय फ्रांस में रहकर वे फ्राँसीसी भाषा में पारंगत होने के अलावा थोड़ी बहुत लातिन और ग्रीक भाषाएँ भी सीख चुके थे और औपचारिक शिक्षा में अरुचि के बावजूद भौतिकी, इतिहास और साहित्य में उनकी महारत थी। ऑस्ट्रिया जैसे दीगर मुल्कों में नागरिकता पाने की असफल कोशिश के बाद 1886 में उन्होंने ब्रिटिश नागरिकता प्राप्त की। बीस साल की उम्र के बाद अंग्रेज़ी सीखी। इसलिए उनकी भाषा में अंग्रेज़ों या जन्म से अंग्रेज़ी जानने वालों जैसी स्वाभाविकता नहीं है। पर वे अद्भुत प्रतिभा के धनी थे। उन्होंने भाषा का ऐसा अनोखा प्रयोग अपने उपन्यासों में किया है कि उन्नीसवीं सदी के आखिरी दशक से बीसवीं सदी के आरंभ के अंग्रेज़ी साहित्य में उनकी विशिष्ट पहचान बनी है। बहुभाषी होने के अपने अनुभव को वे उपन्यास के चरित्रों में भाषा के प्रति विविध मनोभावों में प्रकट करते हैं। उनकी शब्दावली विपुल है। हमने अनुवाद में कुछ संदर्भों को स्पष्ट करने के लिए फुटनोट दिए हैं। आशा है इससे पाठकों को सुविधा होगी।
उनके लेखन के बारे में कहते हुए टी ई लॉरेंस लिखते हैं - “गद्य लेखन में उनसे बड़ा तहलका और कोई न था। काश कि मैं जान पाता कि वे कैसे हर अनुच्छेद में (...वे वाक्य कदाचित ही लिखते, हमेशा अनुच्छेद ही लिखते थे...) लहरों की तरह उमड़ना ले आते हैं, जैसे कोई घंटी बजने के बाद ऊँची ध्वनि-तरंगें पैदा कर रही हो। उनका लेखन साधारण गद्य की लय से नहीं, बल्कि उनके दिमाग में चल रहे प्रवाह से बनता है; और चूँकि वह कह नहीं पाते कि वह क्या कहना चाहते हैं, इसलिए उनका लिखा हर कुछ एक तरह की भूख में, कुछ न कह पाने या न सोच पाने के संकेत में सिमट जाता है। इसलिए उनकी किताबें अपने वास्तविक आकार से बड़ी दिखती हैं।..” उनके समकालीन आलोचकों ने उनके जटिल और गंभीर आख्यानों और निराशामूलक दृष्टि से पाठकों की विरक्ति की बात कही, पर बाद की पूरी सदी में समूचे विश्व में हुई घटनाओं से उनके लेखन का महत्त्व साफ होता गया। इस तरह उन्हें अपने समय के आगे का लेखक भी माना गया है।
आलोचकों का मानना है कि उनकी अंग्रेज़ी पर फ्राँसीसी और पोलिश भाषाओं का गहरा प्रभाव रहा है। स्वयं कोनराड ने अंग्रेज़ी में लिखने को महज सुविधा कह कर दरकिनार किया है। उनका कहना था कि फ्राँसीसी या पोलिश जैसी भाषाओं में लिखने के लिए उन्हें कला और कथ्य दोनों नज़रिए से अधिक मेहनत करनी पड़ेगी। एक रोचक संदर्भ यह है कि कोनराड के सबसे पहले साहित्यिक अभ्यास उनके ख़तों को माना जाता है जो उन्होंने थोड़े समय भारत में 1885-86 में संक्षिप्त आवास के दौरान अपने वरिष्ठ पोलिश साथी योसेफ स्पिरिडियॉन को लिखे थे। इन ख़तों में पोलैंड के बारे में उनकी हताशा और इंग्लैंड में बसने के इरादे की झलक है। उनका एक और उपन्यास 'द निगर ऑफ द "नारसिसस"' का कथानक भी मुंबई (बांबे) बंदरगाह से शुरू होता है। इस उपन्यास की भूमिका में साहित्य में कला और प्रतिबद्धता के बारे में उन्होंने लिखा है। हमने इस अनोखे आलेख का अनुवाद भी इस पुस्तक में रखा है। यूरोपी देशों और आधुनिकता के साथ बाद में तीसरी दुनिया कहलाए देशों के बारे में कोनराड की समझ और दृष्टि भारत पर भी एक जैसी लागू होती है, हालाँकि जिस तरह की कबीलाई दुनिया से अफ्रीका में उनका रूबरू हुआ था, वैसा भारत में नहीं हुआ था।
कोनराड की मृत्यु 1924 में हुई। उनके जीवन और साहित्यिक काम के बारे में अनगिनत आलेख और किताबें लिखी गई हैं। यूरोप में कई जगह उनकी याद में स्मारक हैं। उनके महत्त्व का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि हाल ही में, 2013 में, रूस के वोलोग्दा शहर में उनकी याद में स्मारक लोकार्पित हुआ – इस शहर में 1862-63 के दौरान उनके परिवार को निष्कासन की सज़ा भुगतते रहना पड़ा था।
अनुवाद की परिकल्पना से लेकर इसे पूरा करने और इसके प्रकाशन में नंदकिशोर आचार्य की भूमिका महत्त्वपूर्ण रही है। उन्होंने न केवल यह काम सुझाया, साल भर अग्रज की तरह स्नेह और प्रोत्साहन देते रहे और पूरा हो जाने पर प्रूफ पढ़ा और भाषा का परिमार्जन किया। यह अतिशयोक्ति न होगी कि उनके बिना यह काम होना ही नहीं था।

1The Collected Letters of Joseph Conrad, Vol. 2 (The Cambridge Edition of the Letters of Joseph Conrad), Cambridge University Press, 1986.

2सामान्य जानकारियाँ विकीपीडिया से ली गई हैं (http://en.wikipedia.org/wiki/Joseph_Conrad).

2 comments:

स्वप्नदर्शी said...

जोसेफ़ कॉनरेड मेरे प्रिय लेखकों में से हैं, इस किताब का हिन्दी अनुवाद देखने की उत्सुकता रहेगी। जो इंट्रोडक्शन है उसमें 'पिलग्रिम' का तीर्थयात्री अनुवाद मुझे ठीक नहीं लगता। पिलग्रिम इंग्लॅण्ड के Babworth, East Retford, and Nottinghamshire के इलाके के लोग थे, जिनकी 1600s के चर्च से असहमति थी, और ये चर्च ऑफ इंग्लॅण्ड में प्रार्थना के लिए नहीं जाते थे, जो दंडनीय था, तीर्थ यात्रा के लिए नहीं बल्कि कुछ हद तक चर्च के बंधनों से मुक्ति के लिए बड़ी संख्या में ये लोग अमेरिका और अफ्रीका की तरफ गए. और अपने तरह के पिलग्रिम चर्च इन्होने बनाये।

प्रदीप कांत said...

बधाई