Thursday, January 01, 2015

खुद को याद दिला रहा हूँ


नए साल का प्रण

नया साल।
पता नहीं कैसे यह यह हो गया कि एक खास दिन से नया साल होना चाहिए। हमारे मित्र राजू साहब की सुनें तो यूरोप के लोग बेवकूफ थे कि पहली जनवरी को नया साल तय कर दिया। हमारे यहाँ तो चैत बैशाख में फसलों की कटाई के साथ नए साल की धारणा जुड़ी है। नए साल को उत्सव मनाने की परंपरा आज से चार हजार साल पहले ईराकियों ने की। पर एक जनवरी की धारणा रोमन लोगों ने बनाई। यानुस (जानुस) नामक देवता को समर्पित यह दिन बाद में ईसाई कैलेंडर में भी साल का पहला दिन हो गया।
मित्र की तकलीफ यह है कि पुराने जमाने में धाक तो हमारी थी और हमें ऐसे वक्त में जीना पड़ रहा है जब हम शून्य पर तो दावा कर सकते हैं, पर साथ ही कई मामलों में शून्य हो गए हैं। ऐसे मित्र इन दिनों चारों ओर घूम रहे हैं। मैंने तय किया कि इस नए साल मैं प्रण लूँगा कि इन मित्रों से लोहा लिया जाए।
दो सौ साल पहले जब अंग्रेज़ धीरे-धीरे दक्षिण एशिया पर हावी होते जा रहे थे, तो यहाँ के लोगों में चेतना फैलने लगी कि यार हम भी कुछ हैं। अगर हम सब इकट्ठे हो जाएँ तो क्या मज़ाल कि कोई हमें दबा ले। पर यह इतना आसान काम नहीं था। 1857 में हिंदी क्षेत्र की जनता ने ईस्ट इंडिया कंपनी की ज्यादतियों के खिलाफ अपने राजाओं के पक्ष में हल्ला बोला तो आधे राजा तो अंग्रेज़ों के पक्ष में ही खड़े थे। हम ग़लती से उस जनयुद्ध को आज़ादी की पहली लड़ाई कह देते हैं, पर अगर अंग्रेज़ वह जंग हार गए होते तो यहाँ पचास मुल्क तो होते ही। सचमुच वह आज़ादी होती या नहीं यह और बात है।
अंग्रेज़ जीत गए और हम एक मुल्क हो गए। और फिर हमारा दावा शुरू हो गया कि शून्य में तो सारा ब्रह्मांड है या कि सारा ब्रह्मांड शून्य ही है। इसलिए हम ही श्रेष्ठ। इस चक्कर में 1857 में जो राष्ट्रीय एकता का सपना बना था, वह भी बिखरता गया और अगली सदी में हम हिंदू थे, मुसलमान थे।
वैसे गणित में शून्य कमाल की बात है। शून्य से श्रेष्ठता का संबंध बनने लगता है तो क्या ग़म! पर किसका दावा? यहीं मित्रों से मेरा पंगा शुरू होता है। मैं तो टिंबक्टू में खड़े एक अकेले बंदे को भी सभ्यता कहता हूँ। सर्वेश्वर का इब्न बतूता जब 'पहन के जूता निकल पड़े तूफान में' तब वह किस देश का था, किस देश को गया?
श्रेष्ठता का दावा करने वाले विद्वानों की एक जमात है जो कहते हैं कि अंग्रेज़ों के आने के पहले हमारे यहाँ सब ठीक था। हाँ, जाति-वाति थी, लड़कियाँ घर के अंदर थीं, पर इतना बुरा हाल नहीं था, जितना अब है। अंग्रेज़ों ने तीन सौ साल में सब तबाह कर दिया। अव्वल तो अंग्रेज़ कोलकाता, चेन्नई जैसे शहरों को छोड़कर कहीं और दो सौ साल से ज्यादा रहे ही नहीं। और दो सौ साल पहले संख्या में वे जितने थे उससे ज्यादा लोग दिल्ली की चाँदनी चौक में थे। और उनके आने के बहुत पहले कबीर, नानक, तुकाराम आदि ने जात-पात के खिलाफ जिहाद छेड़ा हुआ था। जब अंग्रेज़ आए तो कई पंडित घबराए कि ये ईसाई तो हमें खा जाएँगे, तो कई और भले लोगों को लगा कि हमारे समाज में बदलाव आने चाहिए। यह जद्दोजहद लंबी चली। नतीज़तन आज यहाँ हम।
तो ये विद्वान क्यों कहते रहे कि सब गड़बड़ अंग्रेज़ों की वजह से ही हुई। अंग्रेज़ी में, यूरोपी मुहावरों का इस्तेमाल कर विमर्श करने वाले ये विद्वान ज्यादातर ऐसे तबकों से आते हैं, जिन्होंने सदियों से बहुसंख्यक लोगों को दबा रखा है। आज उन्हीं के मुहावरों का इस्तेमाल कर निहित स्वार्थों के प्रभाव में सामान्य लोग हिंदी में सामूहिक बीमारी का इजहार कर रहे हैं। शून्य हमारा, ब्रह्मांड हमारा। संस्कृत हमारी, अंग्रेज़ी हमारी। काहे का बड़ा दिन, गुड गवर्नेंस का दिन है भाई। गाँधी भूलो, स्वच्छता बोलो। वगैरह, वगैरह। अब इन विद्वानों का हाल बुरा है। जाएँ तो किधर जाएँ। कई तो पहले ही बिक चुके हैं और जय विकास, जय विनाश का नारा लगा रहे हैं।
तो नए साल में मेरा प्रण यही है कि खुद को इस एकांगी नज़रिए से बचाने की कोशिश करता रहूँगा। इंसान को इंसान कहूँगा और जहाँ भी वह बार-बार हार कर फिर-फिर उठ रहा है कि नई सुबह के लिए लड़ना है, मैं उसके लिए गीत गाऊँगा। पचीस साल पहले लिखा गीत – जागेंगे/नाचेंगे/गाएँगे/ उड़ेंगे/मुड़ेंगे/जुड़ेंगे /अड़ेंगे/भिड़ेंगे/लड़ेंगे /बीतेंगे/बीतेंगे रे/दुख के दिन बीतेंगे /जीतेंगे/जीतेंगे/हम जीतेंगेऔर एक दो चार नहीं अनंत, कम से कम सात अरब सभ्यताओं को पहचानूँगा। बराबरी की चाहत को पूरा करने के लिए इंसान की शिद्दत को पहचानूँगा।
वैसे यह कोई नया प्रण नहीं है। बस खुद को याद दिला रहा हूँ।

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