Monday, April 14, 2014

झूठे गौरव से सीना है चौड़ा


युवाओं से



तुम कहते हो मैं सुनता हूँ कि कुछ होने वाला है
हमने खिड़कियाँ बंद कर दी हैं कि ग़लत किस्म हवा न आए
कि बस एक चौंधियाती सोच है, अब इस घर में बस जाए
और यूँ आँख कान बंद रख कर ही सच दिखने वाला है
अगर दीवार में किसी छेद से कोई और बात घुस पैठ आए
तो अनदेखा करें, हाथ पड़ ही जाए तो उसे तोड़-मरोड़ दें
सारे अर्थ बदल जाएँ उसमें कुछ ऐसा मुहावरा जोड़ दें
जो सच हमारा है वही बस वही समंदर सा फैल जाए



डरता हूँ कि दिखेगा दिखेगा हमें कभी कोई और सच भी
तब तक हम समंदर में जाने कहाँ किस ओर बह चुके होंगे
चारों ओर चीखें होंगीं, और हमें समझ न आएगा कुछ भी
अनजान चट्टानों से टकराते हम तब भरपूर थके होंगे
लाशें बिखरी होंगी जिन साहिलों पर जा गिरेंगे हम
खून सनी रेत में से लड़खड़ाते चलेंगे ढूँढते सहारा
लहरों की मार से गिरते बार बार हर कोई थका हारा
कोई कश्ती पास न होगी न मल्लाह कोई, बहेंगे आँसू हर दम



दूर जंगलों में से कोई हमें पुकारता होगा; हम सुनेंगे
दमन के खिलाफ गाए जाएँगे गीत और हम रुकेंगे वहीं
सत्य सुंदर तब भी ज़िंदा होगा, छिप कर ही सही कहीं
थके हुए हम उन खूबसूरत आवाजों की ओर तब मुड़ेंगे


हर सिम्त माहौल में कोई गिद्ध बू सूँघता होगा
हर पौधे हर पत्ते में से आएगी जिहाद की फिसफिसाहट
शाम छिपे-छिपे हम षड़यंत्र रचेंगे, सुनेगी हिटलर की गुर्राहट
हर साथी फौज-पुलिस को चकमा देते राह ढूँढता होगा



हम नहीं जानते हैं कि अपने इन क्षणों में हम ढो रहे हैं
हमारे भविष्य की दर्दनाक दरारें; इंसानियत नहीं
देश-धर्म ही हमारी नियति है मानते हम क्या खो रहे हैं
फिलहाल झूठे गौरव से सीना है चौड़ा, हैवानियत सही



थोड़ा सुकून, औरों से थोड़ा और ज्यादा सुख
इसी में मदहोश हैं हम, सीना चौड़ा है, निडर हैं
सब जानकर अंजान, मानो तालीमयाफ्ता नहीं सिफर हैं
कैसे जानें कि आगे है इंतज़ार में खड़ा पहाड़ सा दुख।

No comments: