Friday, February 21, 2014

"ग़म की लौ थरथराती रही रात भर"


कौन थरथराता है
किसकी रुकती है साँस
कायनात की सारी कारवाई रोक दी जाए
सारे अंजील और देव सारे उतर आओ धरती पर
कि किसी के ग़म की लौ से पिघलने लगा है शेषनाग का सीना
कौन काँपता है सिसकता हुआ
चाहत किस रब की
साझा करता कौन
मुझसे यूँ
और मैं धरती के सबसे ऊँचे पहाड़ पर खड़ा होकर चीखता हूँ

और मैं पिघलता जाता हूँ
आ कि तेरे नम चश्म को चूम लूँ
आ कि तेरी गोद में टपका दूँ मेरा आखिरी आँसू
आ तू
कि तेरी थरथराहट में
विलीन होता हुआ मैं खुद को रच लूँ
आ तू ।
(रविवारी जनसत्ता - 2013)


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