Monday, October 28, 2013

हादसा और उदारवादी उलझनें


जीवन में बड़े हादसे हुए हैं। औरों के हादसों की सूची देखें तो मुझसे लंबी ही होगी। फिर भी हर नया हादसा कुछ देर के लिए तो झकझोर ही जाता है। आमतौर पर अपनी मनस्थिति के साथ समझौता करने यानी अपनी थीरेपी के लिए ही मैं चिट्ठे लिखता हूँ। यह चिट्ठा खासतौर पर एक अपेक्षाकृत छोटे हादसे में घायल मनस्थिति से उबरने के खयाल सा लिख रहा हूँ।


शनिवार को महज एक स्टॉप यानी पाँच मिनट से भी कम की इलेक्ट्रॉनिक सिटी से होसा रोड की बस यात्रा में मैं पॉकेटमारी का शिकार हुआ। आमतौर पर वॉलेट में अधिक पैसे होते नहीं। कार्ड भी एक दो ही होते हैं। संयोग से उस दिन तकरीबन साढ़े बारह हजार रुपए, एक क्रेडिट कार्ड, दो ए टी एम कार्ड, ड्राइविंग लाइसेंस और कुछ पासपोर्ट साइज़ फोटोग्राफ साथ थे। सब गए।

मन के घायल होने की वजह सिर्फ पैसों का नुकसान नहीं है। बेंगलूरु में नया हूँ, कब तक ठहरना है, पता नहीं, इसलिए सारे कार्ड हैदराबाद के पते के थे। उनको दुबारा बनवाने की परेशानी है। पर जो बात सबसे ज्यादा परेशान करती है, वह है कि मैं खुद को मुआफ नहीं कर पा रहा।

मैंने भाँप लिया था कि जो दो लोग मुझे गेट पर धकेल कर खड़े हैं (बस में भीड़ नहीं थी), वे कुछ खुराफात करने वाले हैं। मैंने पैंट की एक जेब में अपने मोबाइल फोन पर हाथ रखा, दूसरे से ऊपर का रॉड थामे हुए था। दूसरी जेब में पड़े वॉलेट का अहसास लगातार बनाए हुए था।

कंडक्टर ने भी कुछ भाँपा या किसी और कारण से उनसे कुछ पूछा। उन्होंने कन्नड़ में कुछ कहा शायद यह कि वे नीचे उतरने वाले हैं।
स्टॉप पर बस रुकने पर उन्होंने मुझे धकेला तो मैंने एक को वापस धकेलने की कोशिश की। पहला आदमी झट से उतर गया। दूसरा आदमी कुछ रुक कर बोला और लँगड़ाते हुए वक्त लेकर उतरा। मुझे अफसोस हुआ कि मैंने उसकी पैरों की तकलीफ पर गौर नहीं किया था।
उतरते ही मैंने जेब में हाथ डाला तो यकीन नहीं हुआ कि वॉलेट गायब। कंधे पर खाली झोला था। एक बार झोले में देखा कि वहाँ तो नहीं है। फिर उस लँगड़ाते आदमी को न ढूँढकर वापस गाड़ी में चढ़ गया और कंडक्टर को कहा कि पर्स गायब है। उसने कंधे उचकाए (क्या मैंने उसके होंठों पर एक छद्म मुस्कान देखी या कि यह मेरे घायल मन की उपज है!)

मैं वापस उतरा और होसा रोड स्टॉप पर कहाँ वे दो आदमी? मानव और गाड़ी-बसों के उस समुद्र में उन्हें कहाँ ढूँढूँ?
रुँआसे मन से तय किया कि पहले घर जाकर कार्ड्स ब्लॉक करूँ। ऐसे मौकों पर अहसास होता है कि अब उम्र बढ़ रही है और एक असहायता आ घेरती है। तनाव और घबराहट में कुछ दोस्तों को भी फोन किया, फिर किसी तरह सारे कार्ड और हैदराबाद का एक सिम जो वॉलेट में ही था और जिसका नंबर मेरे नेट बैंकिंग का नंबर था, सब रुकवाए। शाम को थाने में शिकायत की ताकि कभी हैदराबाद जाकर लाइसेंस की दूसरी प्रति निकलवाने की कोशिश करें।

तब से इसी कोशिश में हूँ कि किसी तरह इस मनस्थिति से निकलूँ कि एक के बाद एक कैसे मैंने उस दिन ग़लतियाँ कीं और कैसे खुद को लुटने दिया। रह-रह कर कभी कुछ कभी कुछ ग़लत हुआ – दिमाग में चलता रहता है।

हादसों से उबरने के लिए ईश्वरवादियों के पास खुदा होता है। हमारे पास भले दोस्तों के अलावा अंतत: हम खुद ही होते हैं। ठीक यह तो नहीं, पर कुछ ऐसा ही सोचते हुए कभी लिखा था -
सुख दुःख जो मेरे हो चले थे अचानक ही तिलिस्म से
कहीं खो जाते हैं, वापस
बैठता हूँ खुद ही के साथ
फिर से सँजोता हूँ अपने पुराने दुःख
नींद में भी नहीं दिखता जिसे चाहा था देखना
मरहम लेपते हैं अपने ही दुःख।




1 comment:

Anwar Jafri said...

लाल्टू,
तुम्हारे नये हादसे के बारे में पढ़ कर बुरा लगा। सचमुच क्या मुसीबत है इतनी सारी ज़रूरी चीज़ों का एक साथ खो जाना। शायद ऐसे ही किसी क्षणों में हमने अपने धर्म और ख़ुदा को भी खो दिया होगा। उस एक नहीं, बारी बारी से कई ख़ुदाओं को। और अब किसी एक को भी पाना दुर्लभ है।

सही है अब तो दोस्तों से ही काम चलाना पड़ेगा।
अनवर