Sunday, January 06, 2013

छोटी कोशिशें और बड़ी लड़ाई



सात साल पहले किसी पोस्ट में मैंने ज़िक्र किया था कि हमारी (खासतौर पर मर्दों की ) भाषा में स्त्री विरोधी शब्दों के बारे में हमें सोचना चाहिए। उसे यहाँ फिर पेस्ट कर रहा हूँ:

ऐब हो तो कितना

सुबह तेज कदमों से इंजीनियरिंग कालेज और स्टेडियम के बीच से डिपार्टमेंट की ओर चला आ रहा था। दो लड़के इंजीनियरिंग कालेज की ओर से मेरे सामने निकले। उनके वार्त्तालाप का अंशः एक- यार, जालंधर देखा है, कितना बदल गया है। बहुत बदला है हाल में। दूसरा- सब एन आर आई की वजह से है। तुझे पता है जालंधर में कितने एन आर आई हैं। अकेले जालंधर में पंद्रह हजार एन आर आई हैं भैनचोद, तू देख ले भैनचोद।

कहते हैं पौने तीन हजार साल पहले सिकंदर ने सेल्युकस से कहा था, सच सेल्युकस! कैसा विचित्र है यह देश! शायद सिकंदर और सेल्युकस के सामने ऐसे ही दो युवक ऐसा ही कोई वार्त्तालाप करते हुए चल रहे होंगे।

पंजाबी इतनी मीठी जुबान है, पर हर दूसरे वाक्य में भैनचोद आने पर एक अच्छी भली मीठी भाषा भी गंदी लगने लगती है। ऐसा नहीं कि हमने कभी गालियाँ नहीं दीं, न ही यह कि गालियाँ सिर्फ पंजाबी में ही दी जाती हैं। पर पढ़े-लिखे लोग बिना आगे-पीछे देखे गालियों का ऐसा इस्तेमाल करें, यह उत्तर भारत में ही ज्यादा दिखता है। सुना है कि दक्षिण में गुलबर्ग इलाके में भी खूब गाली-गलौज चलती है। तमिल में भी जबर्दस्त गालियों की संस्कृति है। कोलकाता में फुटबाल का खेल देखते हुए बड़ी क्रीएटिव किस्म की गालियाँ भी बचपन में सुनी थीं। आखिर एक ऐसे मुल्क में जहाँ हम यह कहते थकते नहीं कि हम औरतों को देवियों का स्थान देते हैं, हमारी जुबान में जाने अंजाने माँ बहनों के लिए ऐसे हिंसक शब्द इतनी बार क्यों आते हैं? मेरे दिमाग में कोई भी महिला देवी नहीं होती। अधिकतर वयस्क महिलाओं को उनके जैविक और लैंगिक स्वरुप में ही मैं देखता हूँ। पर हर दूसरे वाक्य में भैनचोद कोशिश करके भी मैं नहीं कह सकता। तो क्या यह इसलिए है कि मुझे ऐसी गालियों का अर्थ पता है, पर उन युवकों के दिमाग मुझसे ज्यादा साफ और पाक हैं; वे इसमें कोई हिंसक यौनेच्छा न तो देखते हैं, न सोचते हैं। संभव है कि यही सच है, फिर भी कितना अच्छा हो कि ऐसे शब्द भाषा में कम से कम प्रयुक्त हों।

प्रसिद्ध लोक नाटककार गुरशरण भ्रा (भाई) जी ने एकबार आंदोलन चलाया था कि ऐसी गालियाँ इस्तेमाल करने के खिलाफ कानून बने और उस कानून में अलग-अलग श्रेणी के लोगों के लिए अलग-अलग किस्म की सजा का प्रावधान हो। अगर कोई पुलिस वाले को ऐसी गाली बोलते पाया जाए तो उसको सबसे अधिक सजा दी जाए, गैर-पुलिस सरकारी अधिकारियों को उससे कम और साधारण नागरिकों को सबसे कम। तात्पर्य यह था कि माँ बहन को जोड़ कर बनाई गई गालियाँ निश्चित रुप से हिंसक भावनाएं प्रकट करने के लिए इस्तेमाल होती हैं और सरकारी पदों पर नियुक्त लोग जब हिंसक भावनाएं प्रकट करते हैं तो वे अपने पदों का गलत उपयोग भी कर रहे होते हैं, इसलिए उनको अधिक सज़ा मिलनी चाहिए।

1990 में शमशीर नामक एक संस्था, जो खुद को नारी हितों में काम कर रही बतलाती थी, ने शिमला, चंडीगढ़ जैसे शहरों में 'मेरा भारत महान' नामक एक नाटक खेला। इसमें उनके अनुसार 'मध्य वर्ग की सेंसिबिलिटी को झकझोर देने के लिए' महिला चरित्रों ने भाईचोद जैसी गालियों का प्रयोग किया। जब मैंने उनसे कहा कि न केवल वे अपने उद्देश्य में पूरी तरह से असफल हुए हैं, बल्कि जीन्स पहनी शहरी लड़कियों से ऐसी गालियाँ कहलाके उन्होंने गाँवों और छोटे शहर से आए धनी परिवारों के लड़कों को घटिया यौन-सुख पाने का एक मौका दिया तो वे बड़े नाराज़ हुए। मुझे आज भी यही लगता है कि पुरुषों के घटियापन को महिलाओं के घटियापन से दूर नहीं किया जा सकता।

इसी प्रसंग में याद आता है हमारी यूनीवर्सिटी के एक डीन थे, जो कभी नोबेल विजेता खगोल-भौतिकी के प्रसिद्ध वैज्ञानिक चंद्रशेखर के विद्यार्थी रह चुके थे। औपचारिक सभाओं में भी ये सज्जन माँ बहन की गालियाँ देते थे। चमन नाहल ने अपने उपन्यास 'आज़ादी' में पंजाबी भाषा का गुणगान करते हुए एक चरित्र से कहलवाया है - गंगा का पानी भैनचोद इतना पवित्र है....

कभी कभी ऐसी विकृतियाँ ही जीवन को अर्थ देती हैं। अगर सचमुच हममें कोई ऐब न हो तो जीवन जीने लायक न होगा। पर यह भी हमें ही सोचना है कि ऐब हो तो कितना। (12 नवंबर 2005)

आज जब हर जगह स्त्री प्रसंग पर चर्चा हो रही है, इस बात को मैंने दुबारा सोचा। मैं अक्सर युवा छात्रों से कहता हूँ कि हमें छोटी कोशिशें करनी चाहिए – एक यह भी कि हम धीरे धीरे ऐसे स्त्री विरोधी शब्दों का इस्तेमाल कम कर दें और एक दिन ऐसा आए कि हम बिल्कुल ही न करें। कुछ लोग कहते हैं कि दरअसल ये शब्द हमारी भाषा का हिस्सा बन गए हैं। इनका अर्थ वैसा नहीं होता जो मैं कह रहा हूँ। सचमुच ऐसा है नहीं। अगर ऐसा होता तो हम घरों में, स्त्रियों के सामने बेहिचक इनका इस्तेमाल करते। कई बार 'सभ्य' समाज में हम हिंदी में न कह कर अंग्रेज़ी में कह देते हैं जैसे कि फिर इनमें निहित हिंसा ज़रा कम हो जाएगी। गुस्सा आने पर ऐसे शब्द बेधड़क हमारी ज़ुबान पर होते हैं। यानी हिंसा ही इन शब्दों का धर्म और मर्म है।

ग़रीब कामगार तबकों में ये शब्द आम बोलचाल के शब्द हैं और इसलिए मेरी तरह के कई अराजक लोगों को लगता है कि ऐसे शब्दों का इस्तेमाल कर हम उनके साथ होने की घोषणा करते हैं। ग़रीबी एक भयानक हिंसा है। ग़रीबी कोई उत्सव मनाने लायक बात नहीं है। उस हिंसा के साथ स्त्री विरोधी हिंसा जुड़ जाती है। कामगारों में अपनी स्थितियों के प्रति हताशा जतलाने का यह स्त्री विरोधी तरीका कोई अच्छी बात नहीं है। इसलिए हमारी कोशिश यह होनी चाहिए कि हम चाहे सहानुभूति के साथ ही सही, किसी भी स्थिति में इन शब्दों के प्रयोग का विरोध करें।

यह तो थी छोटी लड़ाई (छोटी तो नहीं पर यह खुद से लड़ने की बात है)। बड़ी लड़ाई जो इस वक्त लड़नी है, वह है ये तथा कथित 'भारतीय परंपरा' वाले स्त्री विरोधियों के साथ जूझने की है। इन अंधकारवादियों की बकवास को पुरजोर आवाज़ में निरस्त करना है। हमारी बेटियाँ जो मर्जी पहनेंगी, जहाँ जब मर्जी जाएँगी, हम उनके साथ हैं। ये 'भारत'वादी अपना 'भारत' अपने पास रखें। हम उनके नहीं, अपने भारत में रहते हैं। यह धरती कठमुल्लों की बपौती नहीं है। बेटियाँ, ज़िंदाबाद। स्त्रियाँ ज़िंदाबाद।

14 comments:

Ashok Kumar pandey said...

रोजमर्रा के जीवन में ऐसी स्त्री-विरोधी भाषा उस पितृसत्तात्मक परिवेश का हिस्सा है जिसमें हम पलते-बढ़ते हैं.यही वह परिवेश है जो स्त्री के विरुद्ध छोटी-बड़ी हिंसा को न केवल पुरुषों के लिए बल्कि स्त्रियों के लिए भी सहनीय बनाता है. एक ऐसा माहौल बनाता है जिसमें बलात्कार जैसे अपराध में पीडिता अपराधी और अपराधी हीरो बन जाता है. आपने बिलकुल सही इंगित किया है, इनसे लड़े बिना औरत की बराबरी की कोई बड़ी लड़ाई नहीं लड़ी जा सकती. इसे पाठकों के लिए फेसबुक पर भी शेयर कर रहा हूँ.

Ashok Kumar pandey said...

रोजमर्रा के जीवन में ऐसी स्त्री-विरोधी भाषा उस पितृसत्तात्मक परिवेश का हिस्सा है जिसमें हम पलते-बढ़ते हैं.यही वह परिवेश है जो स्त्री के विरुद्ध छोटी-बड़ी हिंसा को न केवल पुरुषों के लिए बल्कि स्त्रियों के लिए भी सहनीय बनाता है. एक ऐसा माहौल बनाता है जिसमें बलात्कार जैसे अपराध में पीडिता अपराधी और अपराधी हीरो बन जाता है. आपने बिलकुल सही इंगित किया है, इनसे लड़े बिना औरत की बराबरी की कोई बड़ी लड़ाई नहीं लड़ी जा सकती. इसे पाठकों के लिए फेसबुक पर भी शेयर कर रहा हूँ.

दिनेशराय द्विवेदी said...

अदालत परिसर में सहज रीति से दो व्यक्ति बात कर रहे थे। एक वाक्य में दो इसी तरह की गालियाँ उच्चारते हुए। जब कि उन का कोई अर्थ उस की बात में कहीं नहीं जुड़ता था। वे घटनाओँ और वस्तुओँ को भी इन्हीं शब्दों से संबोधित कर रहे थे।
एक चला गया। मैं ने दूसरे से पूछा कि उस ने एक मिनट की बात में कम से कम बीस बार इन शब्दों का प्रयोग किया है। क्या वह इन से बच नहीं सकता वह शर्मिंदा हुआ लेकिन फिर अपने लिए ही उस गाली का प्रयोग करते हुए बोला आदत पड़ गई है। मैं ने सुझाया कि वह इन से पीछा छुड़ाने का प्रयत्न तो कर सकता है। उस ने कहा अवश्य करूंगा।
लेकिन ये शब्द वास्तव में हमारे समाज की मानसिक अवस्था को भी प्रकट करते हैं। वाकई इन का प्रयोग करना दंडनीय होना चाहिए।

मोहन श्रोत्रिय said...

बहुत सटीक लिखा है. पुराना होते हुए भी एकदम सामयिक भी है. इसे पढवाने के लिए आभार.

Daljit Ami said...

thanks for reminding again.

राजेश उत्‍साही said...

लाल्‍टू भाई,यह जिस छोटी कोशिश की आप बात कर रहे हैं..वह तो हमेशा ही की जानी चाहिए। आप भी भोपाल आए हैं..;मैं तो बहुत साल वहां रहा हूं..मादरचौद,भैनचौद और मां के,बहन के लवड़े जैसे शब्‍द वहां हरेक की जुबान पर ऐसे आते हैं जैसे वे कोई मंत्र पढ़ रहे हों। मुश्किल यह है कि सामने वाले को इन शब्‍दों के उपयोग के लिए मना करना अपने आप में चुनौती भरा काम है। पर कोशिश करें तो सफलता भी मिलती है। मुझे याद है कि युवावस्‍था में मेरी मित्र मंडली में जो लोग थे वे लगातार बातचीत में ऐसे शब्‍दों का प्रयोग करते थे। एक-दूसरे के लिए भी करते थे। लेकिन मेरा उनके साथ एक करार था कि वे मेरे साथ बातचीत करते समय इनका प्रयोग बिलकुल नहीं करेंगे। मजे की बात यह है कि वे इस बात का ध्‍यान रखते थे।

Saurabh Arya said...

ये भी उसी पितृसत्‍तात्‍मक व्‍यवस्‍था का ही प्रतिफल है जिसमें हर चीज स्‍त्री विरोधी हो तो गालियां भी मां, बहन को शामिल करके स्‍थापित की जाती हैं. दिल्‍ली में मैंने बडे बडे अधिकारियों को भी आम बोल चाल में रोजमर्रा में ऐसे शब्‍दों का इस्‍तेमाल करते देखा है. एक खास बात मैंने महसूस कि है कि उनमें से अधिकांशत: ये आदतन नहीं करते बल्कि जानबूझकर करते हैं और ज्‍यादातर महिलाओं की उपस्थिति में तो यह सुनिश्चित करते हैं कि वे सुन लें....वही लंपटपना इसके पीछे कार्य करता है जिसे वे अपने ओहदे या सामाजिक क्षवि के पीछे छुपाए फिरते हैं. महिला के विरोध करने पर झूठी माफी भी वे मांग लेंगे पर फिर वही ढर्रा होगा. इसके लिए पुरूषों को ही पहल करनी होगी और मित्र मंडली में होने वाली गपशप में भी इन शब्‍दों/ गालियों का विरोध करना होगा.

‘सज्जन’ धर्मेन्द्र said...

इस पोस्ट को पढ़कर मुझे अपनी एक पुरानी कविता याद आई।

कभी माँ थी मैं तुम्हारी
आज केवल एक स्त्री देह रह गई
क्योंकि तुमने
गुस्से में ही सही
दूसरों को गाली देने के लिए ही सही
‘माँ’ शब्द को
अपशब्दों से जोड़कर
नए शब्दों को पैदा करना सीख लिया है

इस सटीक पोस्ट को पढ़वाने के लिए आभार

Anup sethi said...

गालियों का विरोध होना ही चाहिए, रोक भी लगनी चाहिए. दंड का प्रावधान हो तो और अच्‍छा. साथ ही जरूरत तो भीतरी परिवर्तन की है, चेतन होने की. स्‍त्री को समान मानने, व्‍यक्ति के तौर पर उसकी इज्‍जत करने की... यह दीर्घ और श्रमसाध्‍य यात्रा है. इस दिशा में प्रयास करने शुरू कर देने चाहिए, बिना वक्‍त खोए. हमें अपने तथाकथित 'पुरुष' होने का त्‍याग करना होगा...

Anup sethi said...
This comment has been removed by the author.
ghughutibasuti said...

लाल्टू जी, आपकी यह पोस्ट पढ़ अच्छा लगा. इससे ही मिलते जुलते विषय पर बहुत दिन से लिखने की सोच रही थी.
बचपन में ग्वालियर में इस गाली का उतना ही उपयोग होते सुना था जितना है, हो, हूँ, था, थी शब्दों का. तब वहाँ लोग इन्हें तकिया कलम के रूप में प्रयोग करते थे.
घुघूतीबासूती

S. Mazumdar said...

Very true.Using anti women slangs and making anti women jokes are very much part of culture of well placed and educated people. In fact more than half of the jokes circulating in internet,including our very own Santa - Banta ones,treats women as commodity oridiot.

S. Mazumdar said...

Very true.Using anti women slangs and making anti women jokes are very much part of the culture of even well placed and educated people. In fact more than half of the jokes circulating in the internet,including our very own Santa - Banta ones,treat women as commodity or idiot.

Arpita said...

आदत इस शब्द का पुरुष जितना दुरुपयोग करते हुए अपना जीवन आसान बनाये हुए हैं. इन छोटी कोशिशों के लिये पहल तो घर से ही होनी चाहिये. गालियों का विरोध किया जाना घर के संस्कारों में बच्चों को दिया जाना एक छोटी पर ज़रूरी पहल हो सकती है.