Sunday, January 30, 2011

आदतन ईश्वर

भोपाल में कार्यरत मेरे डाक्टर मित्र राकेश बिस्वास ने जीमेल बज़ पर लिंक भेजा है - मानव के चिंतन प्रक्रिया पर वुल्फगां मेव्हेस का आलेख हैरैखिक चिंतन जिसमें निजी स्वार्थ सर्वोपरि है और अन्य की चिंता के लिए जगह नहीं है हमें विनाश की ओर ले जाता है। सामान्य चक्राकार चिंतन हमें दूसरों से जोड़ता हुआ वापस निज तक ले आता है और सूचना आधारित चक्रीय चिंतन हमें दूसरों के साथ जुड़े रह कर भी निजी हितों को भी आगे बढाता हैकोई ख़ास बात नहीं, निज से परे जाने की बात हर भला व्यक्ति कहता हैपर आलेख में ख़ास बात यह है कि पौधों की वृद्धि के साथ इन बातों को जोड़ते हुए तर्क स्थापित किया गया है कि नैसर्गिक विकास को ध्यान में रख सूचना आधारित चिंतन ही सामाजिक संबंधों को सफल और सुखी बना सकता है
चिंतन कैसा भी हो अगर मानव संबंध में 'पर दुक्खे उपकार करे तोए, मन अभिमान न आणे रे' की भावना न हो तो वह सफल नहीं हो सकता। स्वार्थ पर आधारित संबंध अंततः विषम-बंध ही होता है।

ईश्वर पर एक और कविता:

आदतन ईश्वर को मिलती थी जगह


उन दिनों जब हम धरती के एक ओर से दूसरी ओर 
भेजते थे प्रेम के शब्द कागज और स्याही में बाँधकर
लिखने को ऐसी मजेदार बातों की जगह न होती थी
अनगढ़ पर तीखे होते थे हमारे शब्द और आँसू भी कभी 
टपकते थे उनपर मुझे याद हैं ऐसी दो घटनाएँ
पर सार होता था उनमें भरा पेड़ पर पके फलों जैसा
पढ़ता हूँ आज चैट संवाद दूर शहर से कि एक
व्यक्ति है जिसने समय पर भोजन नहीं किया है या
बस नहीं चलने पर नहीं देखा गया नाटक जो खेला गया
शहर के दूसरे कोने में सचमुच ऐसी बातें नहीं होती थीं 
हमारे खतों में उन दिनों गोया डाक की व्यवस्था ऐसी थी
कि हम जो लिखें उसमें वजन हो हालांकि हर खत में 
पूछा जाता था कुशल खेम लिखे जाते थे कुछ सस्ते सही 
मौलिक गीत के मुखड़े अधिकतर में आदतन किसी ईश्वर
को भी मिलती थी जगह ...

(प्रकाशित  : 2010)




4 comments:

Pratyaksha said...

अच्छी

Vivek said...

I might not be of appropriate age, who can appreciate it to the best way which it deserves. But i think this is really a masterpiece, and as far as i can understand, it's not only telling us some truths, but also showing a mirror to ourself...

गिरिधर | giridhar | గిరిధర్ said...

लाल्टू

बढ़िया कविता है, मज़मून भी और शैली भी - धन्यवाद!

चक्राकार चिंतन का वो आलेख अब उस पेज पर नहीं है. मुझे वो लेख गूगल के कैश में मिला.

शरद कोकास said...

बहुत अच्छी लगी यह कविता ।