Sunday, July 26, 2009

सोहनी धरती अल्लाह रखे

प्रतिलिपि पर कविता पढ़ कर एक मित्र ने मजाक करते हुए पूछा - दरख्त को क्यों इतनी झेंप?
सचमुच कई बार लिखने की कोशिश करते हुए रुक गया। कई कारण हैं चिट्ठा न लिखने के। व्यस्तता, बीमारी, इत्यादि, पर सबसे बड़ा कारण वही सामान्य अवसाद है, जो जरा सा सजग हो कर सोचते ही हावी हो जाता है। इसके बावजूद कि कितने साथी जूझ रहे हैं कि बेहतर सुबह नसीब हो, फिर भी कभी कभी जैसे असहायता का समंदर सा दम घोटने लगता है। वैसे इन दिनों में हमेशा कि तरह कुछ पढ़ता रहा। अब पढ़ने के तुरंत बाद भी सब नाम याद नहीं रहते, पर मसलन
Ian Mcewan का उपन्यास Atonement, Per Patterson का Out Stealing Horses – ये दो और David Allyn का Make Love Not War – साठ-सत्तर के दशकों में अमरीका में हुए यौन आंदोलनों पर लिखी इतिहास की किताब पढ़ी। मैं १९७९ में पहली बार अमरीका गया था और छः साल लगातार ठहरा था। Allyn की उम्र मुझसे कम है, इसलिए प्रत्यक्ष अनुभव उन घटनाओं का उसे नहीं है, जिन्हें मेरी पीढ़ी के लोग थोड़ा बहुत देख पाए थे। फिर भी साक्षात्कारों और दस्तावेजों के आधार पर लिखी यह किताब सचमुच पढ़ने लायक है। दो साल से पास पड़ी हुई थी, आखिरकार मैंने पढ़ ही ली। एक और किताब जो लंबे समय से पास थी और जिसका दो तिहाई पढ़ गया हूँ, वह है Marvin Minsky की
The Society of Minds. चूँकि पेशे से वैज्ञानिक हूँ इसलिए विज्ञान की पुस्तकों के बारे में जिक्र करने का मन नहीं करता। पर यह पुस्तक भी अद्भुत है। एक एक पन्ने के २७० अध्यायों में Minsky ने दिमागी प्रक्रियाओं के बार में खूबसूरती से समझाया है। Minsky विश्व विख्यात AI यानी artificial intelligence के शोधकर्त्ता रहे हैं और उनकी पहुँच इस क्षेत्र में अद्वितीय है।

बहरहाल, इन सब के बीच भारत महान अपनी लीक पर चलता रहा। राम सेने के लोगों ने किसी हिंदू विवाह समारोह में उपस्थित एक मुसलमान सज्जन की पिटाई की सिर्फ इसलिए कि मुसलमान होकर हिंदू विवाह में आने कि जुर्रत कैसे की। किसी दरगाह के मौलवी के समर्थकों ने अखबार वालों को पीटा कि उन्होंने मौलवी के बारे में क्यों लिखा। और बलात्कार, खून खराबा, सब अपनी जगह पर चल रहे हैं।

इधर एक और स्वतंत्रता दिवस आ रहा है। इस बार मैंने तय किया है कि सारे दिन यह नग्मा गाऊँगा - इसे सबसे पहले फरीदा ख़ानूम की आवाज में सुना था:
सोहनी धरती
अल्लाह रखे
कदम कदम आबाद तुझे
तेरा हर इक ज़र्रा हम को
अपनी जान से प्यारा
तेरे दम से शान हमारी
तुझ से नाम हमारा
जब तक है ये दुनिया बाकी
हम देखें आजाद तुझे

तेरी प्यारी सज धज की हम
इतनी शान बढ़ाएँ
आने वाली नस्लें तेरी
अज़मत के गुन गाएँ

इस गीत को जमीलुद्दीन अली ने लिखा था। इसे नूरजहाँ आदि कइयों ने गाया है। किस मुल्क के लिए लिखा गया है यह गीत? मुझे लगता है यह मेरे मुल्क के लिए है - जहाँ भी मैं हूँ - हैदराबाद में, या दुनिया के किसी दीगर जगह पर, हर जगह मैं यह गीत गा सकता हूँ। इसको सुन कर Woodie Guthrie का गाया पुराना गीत याद आता है:
This land is my land this land is your land
This land is made for you and me
From Redwood forests to Newyork Islands,
This land is made for you and me.
सचमुच कौन सा इतिहास मेरा है, क्या टिंबक्टू का इतिहास मेरा इतिहास नहीं है! वक्त आ गया है कि लोग माँग करें कि हमें देशभक्ति की संकीर्ण परिभाषाओं से मुक्त किया जाए। हम धरती के लाल, सारा संसार हमारा है। जैसे मुक्तिबोध ने कहा था: जन जन का चेहरा एक।
जन जन का चेहरा एक
मुक्तिबोध
फिर कहो मेरी कलम से
जन जन विक्षिप्त
यूँ ही घबराहट, एकाकीपन
यूँ ही आश्रय की खोज में लिप्त

यूँ ही आसक्त, यूँ ही विरक्त
यूँ ही अन्याय से समझौतापरस्त
यूँ ही व्यक्तिवादी
यूँ ही समष्टि से विच्छिन्न
सुख दुख के खेल में क्लांत
परिभ्रांत।

(नाबार्ड की पत्रिका में प्रकाशित - २००५)


इस बीच हबीब तनवीर गुजर गए। भोपाल में 87-88 के दौरान पहली बार उनका 'चरनदास चोर' देखा था। चंडीगढ़ मे एक बार उनसे थोड़ी बातें हुईं थीं। जनवरी में वर्धा में उनका कार्यक्रम था और मैं बीमार लेटा हुआ था - दूर से उनकी बेटी का गाना सुन रहा था।

2 comments:

प्रदीप कांत said...

सोहनी धरती
अल्लाह रखे
कदम कदम आबाद तुझे
तेरा हर इक ज़र्रा हम को

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तू हिन्दू बनेगा न मुसलमान बनेगा
इन्सान की औलाद है इन्सान बनेगा

तभी सोहनी धरती के लिये ये दुआ सच होगी

Mithilesh dubey said...

यूँ ही आसक्त, यूँ ही विरक्त
यूँ ही अन्याय से समझौतापरस्त
यूँ ही व्यक्तिवादी
यूँ ही समष्टि से विच्छिन्न
सुख दुख के खेल में क्लांत
परिभ्रांत।

बहुत खूब लिखा है जनाब आपने।