Friday, March 31, 2006

Cdnuolt blveiee taht

मसिजीवी को लंबे समय से छेड़ा नहीं।
अब टिप्पणी आई तो मन हुआ कि लिख दें - अरुणा राय, लाल सलाम!

मैं जब कालेज में था तो अक्सर दोस्त बाग मुझे छेड़ा करते थे। कभी कभी मैं भी छेड़ देता था। मैंने अक्सर पाया है कि कुछ लोग छेड़ना सह नहीं पाते। याद आता है कि कई बार गालियाँ सुनी हैं, एकबार तो निंबोरकर नामक एक बंधु मुझे चौथी मंज़िल की खिड़की से भी धक्का मारकर फेंकने वाला था। मैं अपनी कक्षा में सबसे कम उम्र का था और अच्छे बच्चे से कब शरारती बच्चे में तबदील हो चुका था पता ही नहीं था। स्वभाव से अब भी शरारती हूँ, पर अब नाराज़ होने वालों की संख्या कम और प्यार करने वालों की बढ़ गई है। पर जो नाराज़ हैं वे भयंकर नाराज़ हैं। चलो, कभी कोई तरकीब निकालेंगे कि प्रकाश की गति से ज्यादा तेजी से पीछे की ओर दौड़कर पुरानी घटनाओं को बदल डालें ताकि नाराज़ लोग भी मुझपर खुश हो जाएँ।

बहरहाल पिछली बार मैंने प्रसंग के आधार पर समझ की बात की थी। पिछले महीने मेरे मित्र राकेश बिस्वास ने, जो डॉक्टर है और इनदिनों मलयेशिया में कहीं है, एक रोचक उदाहरण भेजा था। पता तो मुझे अरसे से था, पर देखा पढ़ा मैंने भी पहली बार ही है। जरा नीचे लिखे उद्धरण को पढ़िएः जरा तेजी से पढ़िएः

Cdnuolt blveiee taht I cluod aulaclty uesdnatnrd waht I was rdanieg. The phaonmneal pweor of the hmuan mnid, aoccdrnig to rscheearch at Cmabrigde Uinervtisy, it deosn't mttaer in waht oredr the ltteers in a wrod are, the olny iprmoatnt tihng is taht the frist and lsat ltteer be in the rghit pclae. The rset can be a taotl mses and you can sitll raed it wouthit a porbelm. Tihs is bcuseae the huamn mnid deos not raed ervey lteter by istlef, but the wrod as a wlohe. Amzanig huh? yaeh and I awlyas tghuhot slpeling was ipmorantt!

है न मजेदार। पढ़ लेने के बाद समझ में नहीं आता कि पढ़ा कैसे।

Sunday, March 26, 2006

परीक्षार्थी और सूचना का अधिकार अधिनियम

परीक्षार्थी को मूल्यांकन के बारे में जानने का होना चाहिए या नहीं? इस बारे में ज़रुरी खबर।

Saturday, March 25, 2006

लेकिन।

सूचनाः- महज सूचना और अवधारणात्मक समझ के साथ सूचना में फर्क है।

जब साधन कम हों तो रटना भी फायदेमंद है। भारतीय परंपरा में लिखने पर कम और श्रुति पर जोर ज्यादा था। चीन में बड़े पैमाने पर तथ्य दर्ज किए गए, पर वहाँ भी स्मृति पर काफी जोर रहा है। गरीब बच्चे जिनके पास पुस्तकें कम होती हैं, उनके लिए रटना कारगर है। यानी स्मृति का महत्त्व है।

लेकिन।

एक कहानी है, जो मैंने बचपन में सुनी थी - बाद में शायद लघुकथा के रुप में 'हंस' में छपी थी। पंडित का बेटा चौदह साल काशी पढ़ कर आया। गाँव में शोर मच गया। लोग बाग इकट्ठे हो गए। हर कोई बेटे से सवाल पूछे। आखिर चौदह साल काशी पढ़ कर आया है। विद्वान बेटा जवाब दर जवाब देता जाए। आखिर जमला जट्ट भी भीड़ देख कर वहाँ पहुँच गया।
जमले से रहा नहीं गया। कहता कि एक सवाल मैं पूछूँ तो बेटे जी से जवाब नहीं दिया जाएगा। लोगबाग हँस पड़े। बेटे ने नम्रता से कहा पूछो भई। जमला के कंधे पर हल था। उसने हल की नोक से ज़मीन पर टेढ़ी मेढ़ी लकीर बनाई। लोग देखते रहे। जमला ने पूछा - बोल विद्वान भाई,यह क्या है? बेटा क्या कहता, हँस पड़ा - यह तो एक रेखा है। जमला ने सिर हिलाया - नहीं बॉस! no go! बेटा जरा परेशान हुआ बोला वक्र रेखा है और क्या है? जमला बोला नहीं जी नहीं हुआ। कई जवाब देकर आखिर तंग आकर बेटे ने कहा कि चलो तुम ही बतलाओ, हम तो हार गए। सब ने कहा - tell him bro' tell him! तो जमला ने हँस कर कहा - अरे यह है बलदमूतन! (बलद मतलब बैल)।

मात्र सूचना का विकल्प क्या है? सूचना अनपढ़ किसान के पास भी बहुत सारी होती है। गाँव में स्कूल न जा रहे बच्चे के पास भी होती है। पर वह मात्र सूचना नहीं होती। जितना भी सीमित हो, उस सूचना का एक तार्किक आधार होता है। शिक्षाविद मानते हैं कि बच्चों के सीखने की अलग अलग उम्र की खिड़कियाँ होती हैं। चार साल के बच्चे को न्यूटन के नियम नहीं समझाए जा सकते। रटाए ज़रुर जा सकते हैं। चूँकि दिमाग है कि हर कुछ समझना ही चाहता है, इसलिए जब रटा नहीं जाता तो मार पीट कर रटाया जाता है। आखिरकार दिमाग कुछ पैटर्न्स ढूँढ लेता है - कभी ध्वनियों के, कभी आकारों के और उनके माध्यम से रटता रहता है। सालों बाद अचानक एकदिन जब बात समझ आती है तो अजीब लगता है अच्छा तो यह बात थी और मैंने रट कर ही काम चला दिया! चूँकि काम चल जाता है इसलिए कहा जा सकता है कि रटना कारगर है। मैं मानता हूँ कि रटने का महत्त्व है। पर कितना अच्छा होता कि पैसे बम गोलों में खर्च न होते, गरीबी न होती, बच्चों के पास भरपूर किताबें होतीं या गाँव गाँव में पुस्तकालय होते और रटने की जगह बच्चे अपने दिमाग के हर परमाणु का उचित इस्तेमाल कर रहे होते। तो जो नैसर्गिक है, जो निहित है, चीज़ों को समझने का वैसा तार्किक आधार विकसित होता। सूचना का भंडार बढ़ता, पर ऐसे जैसे धोनी के छक्के लग रहे होते हैं।

भाषाविदों में बहस चल रही है कि क्या सभी भाषाओं का एक सा व्याकरण है? अब यह माना जा रहा है कि व्याकरण या विन्यास कुछ नहीं होते, प्रसंग महत्त्वपूर्ण होते हैं। य़ानी कि प्रासंगिक समझ विषय को परिभाषित करती है, कोई नियत परिभाषा प्रसंग की व्याख्या नहीं करती। सूचना आधारित शिक्षा परिभाषाओं के जरिए विषय वस्तु का परिचय करवाती है, जबकि प्राकृतिक रुप से हम अनुभव के जरिए और प्रासंगिक समझ के जरिए विषय वस्तु को समझ कर सूचना का भंडार बढ़ाना चाहते हैं।

यांत्रिक शिक्षा व्यवस्था में पूर्वज्ञान पर आधारित अवधारणाओं का संसार तो हाशिए पर जाने को मजबूर है ही, परिभाषाओं पर आधारित नया जो तर्क संसार बनता है, इसकी अपूर्णता सीखने वाले पर बहुत दबाव डालती है। इसलिए औपचारिक शिक्षा में महज सूचना के विशाल तंत्र में पिसता हुआ आदमी मानसिक रुप से बीमार ही होता रहता है। इस तंत्र में पढ़ने-लिखने, प्रयोग करने और मूल्यांकन आदि हर पक्ष की अलग और बँधी हुई भूमिका होती है। जबकि इन सभी पक्षों को शिक्षा के सर्वांगीण स्वरुप की तरह देखा जाना चाहिए। जो सीखा गया है, परीक्षा उसका मूल्यांकन मात्र नहीं, बल्कि सीखने का एक और तरीका भी होनी चाहिए। सर्वांगीण स्वरुप में शिक्षा (जिसे मैंने विद्या कहा था) हमें तंत्र से बाहर भी लगातार अपनी क्षमताओं का स्वतः इस्तेमाल करवाती है। महज सूचना पर आधारित यांत्रिक शिक्षा स्कूल कालेज की इमारतों के साथ जुड़ी होती है। घर पर ही पढ़ लिख रहे हम स्कूल कालेज का काम कर रहे होते हैं। तकरीबन आधी सदी ज़िंदा रहने के बावजूद मुझे आज भी सपने आते हैं जैसे मैं स्कूल या कालेज में भटका हुआ हूँ, कोई इम्तहान छूट गया और पता नहीं क्या क्या!

ज्ञान पाना आनंदमय होना चाहिए। सही है, इसके लिए सूचना का भंडार भी चाहिए। पर प्राथमिकता किस बात की होगी, यह महत्त्वपूर्ण है - आनंद की या भंडार की। बहरहाल अनुनाद ने जो सवाल किया है, उसका जवाब एक तरह से मैं पहले दे चुका हूँ कि हजारों लोग जुटे हुए हैं कि शिक्षा का स्वरुप बदले और उसमें आनंद की मात्रा बढ़े। उन्हीं संस्थाओं का नाम मुझे वापस लिखना पड़ेगा। सांकेतिक रुप से एक जवाब उन नारों में भी है जो मैंने उस कार्टून में लिखे थे, जो फटीचर दढ़ियल बंदे के हिस्से के हैं।

और जमला जट्ट की कहानी में जो छूट मैंने ली है, उसके लिए माफी - अब आधे चिट्ठाकार तो यांक बने अमरीका में घूम रहे हैं, उनके लिए कुछ रोचक बात न हो तो मुझे महाबोर घोषित कर देंगे।

Friday, March 24, 2006

दढ़ियल फटीचर

अनुनाद ने हिंदी शब्दों के अच्छे उदाहरण दिए हैं जो उनके अंग्रेजी समतुल्य शब्दों की तुलना में ज्यादा सहज लगते हैं। मुझे अनुनाद की बातों से पूरी सहमति है। चिट्ठालेखन की यही तो समस्या है कि अक्सर आप थोड़ी सी ही बात कर पाते हैं जिसे पढ़ने वाला सीमित अर्थों में ही ग्रहण करता है। जब मैंने यह लिखा कि reversible के लिए रीवर्सनीय या 'विपरीत संभव' भी तो कहा जा सकता है, मैं यह नहीं कह रहा कि ग्रीक या लातिन से लिए गए कठिन शब्दों को लागू किए जाए, मैं तो इसके विपरीत यह कह रहा हूँ कि जो प्रचलित शब्द हैं, उनका पूरा इस्तेमाल किया जाए। स्पष्ट है कि ऐम्फीबियन हिंदी में प्रचलित शब्द नहीं है, जैसे उत्क्रमणीय भी नहीं है। इसलिए ऐम्फीबियन की जगह अगर उभयचर का उपयोग होता है, तो उत्क्रमणीय की जगह विपरीत संभव नहीं तो रीवर्सनीय या ऐसा ही कोई शब्द व्यवहार करना चाहिए। सिर्फ इसलिए कि रीवर्स जैसे शब्द का उद्गम संस्कृत नहीं है, यह तय नहीं करता कि वह हिंदी का शब्द नहीं है। जी हाँ, मेरे मुताबिक लोग जो बोलते हैं, वही उनकी भाषा होती है। उत्क्रमणीय हमारे लिए ग्रीक या लातिन ही है। हिंदी वह नहीं जो भाषा विशेषज्ञ तय करते हैं, हिंदी तो हिंदी क्षेत्र के लोगों की भाषा है, जो सही गलत कारणों से बनती बिगड़ती रहती है।

बात सिर्फ पारिभाषिक शब्दों की नहीं है, अनुनाद ने सही कहा है कि "पारिभाषिक शब्द , चाहे वे हिन्दी के हों या अंगरेजी के, अपने-आप में पूरी बात (फेनामेनन्) कहने की क्षमता नहीं रखते यदि ऐसा होता तो न तो परिभाषा की जरूरत पडती और न ही मोटी -मोटी विज्ञान की पुस्तकों की लोग शब्द रट लेते और वैज्ञानिक बन जाते " बात तो प्रवृत्ति की है। अरे, विज्ञान तो दूर, जो हिंदी मैं लिख रहा हूँ यही हिंदी के कई नियमित चिट्ठाकारों के लिए पत्थर के चनों जैसी है। समूची शिक्षा (हिंदी या अंग्रेज़ी माध्यम) में सूचना पर जोर है।

रटो, रटो, सूचना का बैंक बनाओ। सूचना के भी पारिभाषिक पक्ष पर जोर है। प्रासंगिक है कि हिंदी में लिखी पुस्तकों में यह अपेक्षाकृत ज्यादा है। जैसा मैंने पिछले चिट्ठे में लिखा है, इस तरह की शिक्षा का मकसद व्यवस्था के पुर्जे बनाना है। जिनके पास पैसे हैं, साधन हैं, उन्हें स्कूल कालेज के पाठ्यक्रम से अलग कुछ सीखने का अधिक अवसर मिलता है। इनमें से अधिकांश ने वैसे भी पुर्जे नहीं बनना है, उन्हें पुर्जों का इस्तेमाल करना है, इसलिए वे अवधारणा के स्तर पर आगे बढ़ जाते हैं। बाकी हर किसी को उस शिक्षा की मार से बचने के लिए संघर्ष करना पड़ता है।

बहुत पहले बॉस्टन से निकलने वाली 'साइंस फॉर द पीपल' पत्रिका में देखी सामग्री के आधार पर हमने एक कार्टून बनाया था, जिसमें दो तरह की शिक्षा व्यवस्थाओं पर टिप्पणी की गई है। एक है पारंपरिक या बहुतायत को मिल रही शिक्षा, जिसमें एक सजाधजा अध्यापक है, और सामने अनुशासित ढंग से छात्र बैठे हैं (उदास, खोए से) और अध्यापक कह रहा है - Answer the questions, pass the exams, your future is at stake -सवालों का जवाब सीखो, इम्तहान पास करो, तुम्हारे भविष्य का सवाल है।

दूसरी ओर एक मेरे जैसा दढ़ियल फटीचर है, जिसको छात्रों ने घेर रखा है और मैं कह रहा हूँ- Question the answers, examine your past, your present is at stake - जो जवाब हैं उनपर सवाल खड़े करो, अपने अतीत को परखो, तुम्हारा वर्त्तमान खतरे में है।

मैं फटीचर नहीं दढ़ियल ज़रुर हूँ।

अब दोस्तों, यह मत कहना कि कार्टून चिट्ठे में डालो। मैं देख रहा हूँ कि बाकी लोग मजेदार बातें लिखते रहते हैं मुझे कहाँ कहाँ फँसा देते हो।

Thursday, March 23, 2006

'शिक्षा' और 'विद्या'

'शिक्षा' और 'विद्या' में फर्क है। विद्या मानव में निहित ज्ञान अर्जन की क्षमता है, अपने इर्द गिर्द जो कुछ भी हो रहा है, उस पर सवाल उठाने की प्रक्रिया और इससे मिले सम्मिलित ज्ञान का नाम है। शिक्षा एक व्यवस्था की माँग है। अक्सर विद्या और शिक्षा में द्वंद्वात्मक संबंध होता है, होना ही चाहिए। शिक्षा हमें बतलाती है राजा कौन है, प्रजा कौन है। कौन पठन पाठन करता है, कौन नहीं कर सकता आदि। तो फिर हम शिक्षा पर इतना जोर क्यों देते हैं। व्यवस्था के अनेक विरोधाभासों में एक यह है कि शिक्षा के औजार विद्या के भी औजार बन जाते हैं। जो कुछ अपने सीमित साधनों तक हमारे पास नहीं पहुँचता, शिक्षित होते हुए ऐसे बृहत्तर साधनों तक की पहुँच हमें मिलती है।

जब हम जन्म लेते हैं, बिना किसी पूर्वाग्रह के ब्रह्मांड के हर रहस्य को जानने के लिए हम तैयार होते हैं। उम्र जैसे जैसे बढ़ती है, माँ-बाप, घर परिवार, समाज के साथ साथ शिक्षा व्यवस्था हमें यथा-स्थिति में ढालती है। इसलिए औपचारिक शिक्षा में पूर्व ज्ञान का इस्तेमाल वैकल्पिक कहलाता है। औपचारिक शिक्षा में भाषा हमारी भाषा नहीं होती, गणित हमारे अनुभव से दूर का होता है, परिवेश कृत्रिम होता है। औपचारिक शिक्षा धीरे धीरे हमें अपने आदिम स्वरुप से दूर ले जाती है और व्यवस्था की माँग के अनुसार ढालती है। साथ साथ अपने नैसर्गिक गुणों की ताकत से संघर्ष करते हुए उसी कागज कलम किताब अखबार रसालों की मदद से विद्या अर्जन करते हैं। युवावस्था में जब हम अपने जैविक स्वरुप में पूरी तरह विकसित होते हैं, 'शिक्षा' और 'विद्या' में संघर्ष तीव्र होता है। धीरे धीरे असुरक्षाओं से डरते हुए और समझौते करते हुए हम शिक्षा पर ज्यादा ध्यान देने लगते हैं और विद्या को अप्रासंगिक मानने लगते हैं। इसलिए कोई माँ-बाप बच्चों को संघर्ष के लिए सड़क पर उतरने को नहीं कहता और इसलिए बड़े हमेशा बच्चों से यही कहते हैं कि कि फलाँ पढ़ो और फलाँ बनो।

हमारा समय लोकतांत्रिक सोच के अस्तित्व के संघर्ष का समय है। शिक्षा का सवाल इससे अछूता नहीं रह सकता। जब हम शिक्षा के लिए उचित साधनों या आर्थिक निवेश की बात करते हैं या जब हम बेहतर लोगों के शिक्षा क्षेत्र में आने की बात करते हैं, हमारे ध्यान में यह भी होता है कि शिक्षा के औजारों का इस्तेमाल अधिक से अधिक विद्या के औजारों की तरह हो। शिक्षा की पद्धति में परिवर्त्तन की लड़ाई भी यही लड़ाई है। हर वह प्राथमिक शाला का शिक्षक जो यह माँग कर रहा है कि बच्चों को अनुशासन नहीं कहानी पढ़ना लिखना सिखाना है, वह यही लड़ाई लड़ रहा है। प्राथमिक स्तर से लेकर उच्च स्तर तक, पेडागोजी से लेकर शोध तक हर स्तर पर यह संघर्ष है। जिन्हें आज की अन्यायपूर्ण सामाजिक व्यवस्था से संतोष है, वे शिक्षा में सुधार से घबराते हैं। यह बात है तो अजीब - पर मेरा यह मानना है कि जब मैं एक विद्यार्थी को एक वैज्ञानिक सिद्धांत समझने के लिए स्वतः पुस्तकालय दौड़ने के लिए मजबूर करता हूँ तो मैं उसे देर सबेर हर कहीं यथा-स्थिति को मानने से इन्कार करने को मजबूर करता हूँ।

Tuesday, March 21, 2006

एकदिन अनुदैर्ध्य ही सही, अनुत्क्रमणीय रुप से

मुसीबत यह है कि एक तो शिक्षा व्यवस्था पर बहुत सारे लोगों द्वारा बहुत सारी महत्त्वपूर्ण पुस्तकें लिखी जा चुकी हैं। दूसरी बात यह है कि हिंदी में टंकन की आदत न रहने की वजह से ब्लॉग पर विस्तार से कुछ लिख पाना मुश्किल है। मैंने समय समय पर आलेख लिखे हैं, पर कभी ऐसा शोधपरक काम नहीं किया जिसे गंभीर चर्चा के लिए पेश किया जा सके। मतलब यह है कि अनुभवों के आधार पर कुछ दो चार बातें कहनी एक बात है और वर्षों तक चिंतन कर विभिन्न विद्वानों की राय का मंथन कर सारगर्भित कुछ करना या कहना और बात है। जब उम्र कम थी तो हरफन मौला बनने में हिचक न थी। जहाँ मर्जी घुस जाते थे और अपनी बात कह आते थे। पर अब शरीर भी और दिमाग भी बाध्य करता है कि अपने कार्यक्षेत्रों को सीमित रखें। इसलिए शिक्षा व्यवस्था पर सामान्य टिप्पणियाँ या विशष सवालों के जवाब तो चिट्ठों में लिखे जा सकते हैं, पर विस्तृत रुप से लिखने के लिए तो अंग्रेज़ी का सहारा लेना पड़ेगा (मुख्यतः समय सीमा को ध्यान में रखते हुए)।

प्रोफेसर कृष्ण कुमार की पुस्तकें गंभीर शोध पर आधारित हैं और गहन अंतर्दृष्टिपूर्ण हैं। राज, समाज और शिक्षा से लेकर उनकी दूसरी पुस्तकों में शिक्षा व्यवस्था के 'व्यवस्था' पक्ष की गहरी चीरफाड़ है। जो जल्दी टंकन कर सकते हैं या जिनके पास स्कैनिंग की सुविधा उपलब्ध है (हिंदी में स्कैनिंग के बाद वर्ड प्रोसेसिंग का कोई तरीका है क्या?), वे इस दिशा में पहल उठा सकते हैं और ऐसी पुस्तकों में से प्रासंगिक सामग्री सबके लिए उपलब्ध कर सकते हैं। अगर मैं इस काम में पड़ गया तो भई थोड़ा बहुत भी जो गंभीर काम करता हूँ वह रुक जाएगा।

प्रतीक ने लिखा हैः "जहाँ तक विज्ञान शिक्षा का प्रश्न है; जब तक उसे पुस्तकों के पन्नों से निकाल कर प्रायोगिक तौर पर नहीं सिखलाया जाएगा, तब तक उसका कोई ख़ास मूल्य नहीं है।" बिल्कुल सही - मैं फिर एकबार पुरानी बात दुहराऊँगा कि हजारों लोग इस दिशा में काम कर रहे हैं और जिन संस्थाओं का नाम मैंने पिछले चिट्ठे में लिखा था, उन्होंने इसमें अग्रणी भूमिका निभाई है।

प्रतीकः "मेरा मानना है कि मल्टीमीडिया कम्प्यूटिंग के ज़रिए विज्ञान की शिक्षा को विद्यार्थियों के लिए ज़्यादा सरलता से समझने लायक बनाया जा सकता है।"

खुशी की बात यह है कि इस बारे में पिछले एक दशक में ज़मीनी स्तर पर काम कर रहे लोगों में बुनियादी परिवर्त्तन आया है और तकरीबन हर कोई प्रतीक से सहमत होगा। इसके पहले कई लोगों की राय यह थी कि टेक्नोलोजी कुल मिलाकर विपन्न वर्गों के खिलाफ है। अगर हम सावधान न रहे तो बिल गेट्स जैसे लोग सचमुच हमें बेवकूफ बनाते रहेंगे। इसलिए हर किसी को ओपेन सोर्स आंदोलन को गंभीरता से लेना चाहिए। यह समझना ज़रुरी है कि शिक्षा या स्वास्थ्य पर हर सौ रुपया खर्चने के पीछे गेट्स की मंशा लाख कमाने की है।

पर मल्टीमीडिया को निश्चित तौर पर वेट लैब के पूरक के रुप में इस्तेमाल किया जाना चाहिए। 'पूरक के रुप में' - मैं दुबारा इस पर जोर दे रहा हूँ। हो यह रहा है कि पुराने वक्त में गरीब स्कूलों में भी हमलोगों ने जो प्रयोग किए हैं, आजकल अच्छे भले साधनों से युक्त स्कूलों में वे नहीं करवाए जा रहे हैं। जब प्रयोगशाला में गंभीरता से काम करने का पड़ाव यानी हाई स्कूल का समय आता है, अध्यापक, माँ बाप, हर कोई यही चाहता है कि किसी तरह पर्चों में अच्छे नंबर आ जाएँ। इसलिए सारा जोर कोचिंग और रटने पर होता है न कि प्रायोगिक शिक्षा पर। संपन्न घरों में मल्टीमीडिया का इस्तेमाल हो रहा है पर महज सूचना इकट्ठी करने के लिए। चूँकि इन सब बातों पर सैद्धांतिक स्तर पर बहुत कुछ लिखा जाता है, इसलिए अच्छा यह होगा कि लोग अपने अनुभव लिखें। शायद अनुगूँज पर अलग अलग अनुभव इकट्ठे हों तो उनमें से कुछ बात निकलेगी।

प्रतीकः "विज्ञान को रोचक और सरस तरीक़े से समझाने के मामले में रूसी किताबें लाजवाब हैं, ख़ासकर इस विषय पर मीर प्रकाशन की किताबें मुझे निजी तौर पर बहुत रोचक लगती हैं। बस दिक़्क़त यह है कि उनका अनुवाद काफ़ी क्लिष्ट होता है।"

एक जमाना था जब रूसी किताबें पानी के दर पर मिलती थीं। समाजवादी व्यवस्था का यह भी एक पक्ष है। हजार दो हजार नहीं रुस की साम्यवादी सरकार ने करोड़ों पुस्तकें दुनिया भर में मुफ्त बाँटी थीं। जो रुपए दो रुपए कीमत थी, वह स्थानीय कम्युनिस्ट पार्टियों के खजाने भरने के लिए थी। फिर जब उनका आर्थिक ढाँचा चरमराया तो ये किताबें मुफ्त मिलनी बंद हो गईं। मजेदार बात यह है कि रुस से बाहर भी विज्ञान की सबसे लोकप्रिय किताबें रुसी भगोड़ों द्वारा लिखी गईं। जॉार्ज गैमो इनमें प्रमुख हैं। प्रतीक ने अनुवाद का महत्त्वपूर्ण सवाल उठाया है। मैंने अपने एक चिट्ठे में साहित्य अकादमी की 'समकालीन भारतीय साहित्य' में प्रकाशित 'भाषा' शीर्षक कविताओं में से एक पोस्ट की थी। उसमें एक पंक्ति है - 'नहीं पढ़ेंगे अनुदैर्घ्य।' मैं जब १९८८ में हरदा में एकलव्य संस्था में था तो वहाँ डिग्री कालेज के रसायनशास्त्र के शिक्षक ने प्रेम-प्रसंग में आत्म हत्या कर ली। अचानक आपात्कालीन स्थिति में मैंने केमिस्ट्री के २५ लेक्चर हिंदी में लिए। एकलव्य के दफ्तर में एक लड़का था जिसने उसी कालेज से बी एस सी डिग्री ली थी। एकबार मैंने पुस्तक में 'अनुदैर्ध्य' शब्द देखा, समझ में नहीं आया कि शब्द आया कहाँ से - उससे पूछा तो उसने गोलमोल जवाब दिया। बहुत सोच कर मैं समझा कि शब्द गलत छपा है और सही शब्द अनुदैर्ध्य नहीं अनुदैर्घ्य है। अनु यानी पीछा करने वाला - दैर्घ्य का पीछा करने वाला -longitudinal. मैं सोचता रह गया कि लड़के ने बी एस सी डिग्री ले ली, उसे यह भी नहीं पता कि शब्द गलत छपा है। ऐसे कई शब्द थे। एकबार मैंने reversible शब्द का अनुवाद देखा - उत्क्रमणीय और इसी तरह irreversible का अनुत्क्रमणीय। मैं उसी कालेज में हिंदी पढ़ा रहे शिक्षकों से पूछने लगा कि ये शब्द कहाँ से आए - किसी को नहीं पता था। फिर मैंने सोचा कि राष्ट्र और भाषा के जुनून में हम इतना आगे बढ़ जाते हैं कि सोचते तक नहीं कि हम अपना कितना नुकसान कर रहे हैं। हिंदी में शुद्धता के चक्कर में हो यह रहा है कि हम विज्ञान को इस तरह पढ़ा रहे हैं जिस तरह अब इतिहास भी नहीं पढ़ाया जाता।
इसलिए कविता में मैंने लिखा था,

कहो
नहीं पढ़ेंगे अनुदैर्घ्य उत्क्रमणीय
शब्दों को छुओ कि उलट सकें वे बाजीगरों सरीके
जब नाचता हो कुछ उनमें लंबाई के पीछे पीछे
विज्ञान घर घर में बसा दो
परी भाषा बन कर आओ परिभाषा को कहला दो

मेरे पिता साधारण श्रमिक थे, सरकारी गाड़ी चलाते थे। बचपन से ही उनको रीवर्स गेयर (गीयर) बोलते सुना था। मुझे नहीं पता कि कौन यह तय करता है कि अॉक्सीकरण शब्द हो सकता है पर रीवर्सनीय या रीवर्सिबल शब्द नहीं हो सकता है। या 'विपरीत संभव'। मैने हिंदी के कई बड़े लेखकों को लिखा है कि हिंदी में विज्ञान लेखन हिंदी भाषियों के खिलाफ षड़यंत्र है। मुसीबत यह है कि जैसे गाँव में पंचायत को पैसे मिले तो स्कूल पर नहीं लगते क्योंकि पंचों के बच्चे गाँव के सरकारी स्कूल में नहीं पढ़ते, इसी तरह विज्ञान के क्षेत्र में जिन हिंदी भाषियों की आवाज सुनाई पड़ सकती है वे सभी मंदिर मस्जिद तो ज़रुर जाएँगे पर हिंदी में क्या लिखा जा रहा है इस पर सोचने वाले नहीं हैं।

इसके विपरीत एक राय यह है कि अंग्रेज़ी में आम बोली में तकनीकी शब्दों का आना औद्योगिक विकास के साथ हुआ है, जिसमें कम से कम दो सौ साल लगे हैं, इसलिए हिंदी वाले भी एकदिन अनुदैर्ध्य ही सही, अनुत्क्रमणीय रुप से बोलेंगे।

उफ्, इन शब्दों को लिखते हुए भी जबड़े दुखने लग गए हैं।

Sunday, March 19, 2006

शिक्षा का स्वरुप कैसा हो?

इसके पहले कि इसका कोई जवाब ढूँढा जाए, यह जानना जरुरी है इस सवाल से बावस्ता सिर्फ उन्हीं का हो सकता है जो शिक्षा के क्षेत्र में रुचि के साथ आए हैं। मैं पहले ही बता चुका हूँ कि भारत में अन्य तमाम पेशों की तरह ही शिक्षा के क्षेत्र में भी व्यापक भ्रष्टाचार है और भले लोगों की कम और फालतू के लोगों की ज्यादा चलती है। बी एड, एम एड में पढ़ाया बहुत कुछ जाता है, पर कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी और हम जहाँ के तहाँ रह जाते हैं। संस्थागत ढाँचों से बाहर शिक्षा पर बहुत सारा काम हुआ है। या संस्थानों से जुड़े ऐसे लोग जो किसी तरह संस्थानों की सीमाओं से बाहर निकल पाएँ हैं, उन्होंने शिक्षा में बुनियादी सुधार पर व्यापक काम किया है। आज इस चिट्ठे में मैं सिर्फ कुछेक नाम गिनाता हूँ ताकि जिन्हें जानकारी न हो वे जान जाएँ।

बीसवीं सदी में बुनियादी स्तर पर दो मुख्य वैचारिक आंदोलन हुए हैं। एक है गाँधी जी का शिक्षा दर्शन, जिसमें पारंपरिक कारीगरी को सिखाने पर बड़ा जोर है। दूसरा रवींद्रनाथ ठाकुर का प्रकृति के साथ संबंध स्थापित कर उच्च स्तरीय शिक्षा का दर्शन है। दोनों की अपनी अपनी खूबियाँ और सीमाएँ हैं। व्यवहारिक स्तर पर समर्पित शिक्षकों द्वारा अपने क्षेत्रों में सीमित रहकर शिक्षा में सुधार के प्रयोग किए गए। इनमें गुजरात के गिजुभाई (मूँछोंवाली माँ) का नाम बहुत प्रसिद्ध है। गिजुभाई के आलेखों के हिंदी अनुवाद पुस्तिकाओं के रुप में उपलब्ध हैं। विज्ञान शिक्षा में एक अनोखा आंदोलन जबलपुर के पास पिपरिया नामक छोटे शहर से पाँचेक किलोमीटर दूर बनखेड़ी गाँव में अनिल सदगोपाल के नेतृत्व में किशोर भारती संस्था द्वारा शुरु किया गया था। मिडिल स्कूलों में लागू होशंगाबाद विज्ञान शिक्षण कार्यक्रम के नाम से प्रसिद्ध इस कार्यक्रम को बाद में एकलव्य संस्था वर्षों तक चलाती रही। इसके साथ ही प्राथमिक शिक्षा और सामाजिक विज्ञान शिक्षा के क्षेत्र में भी इस संस्था ने महत्तवपूर्ण काम किया। किशोर भारती के साथ जुड़े और बाद में स्वतंत्र रुप से काम कर रहे अरविंद गुप्ता ने सैंकड़ों खिलौने आविष्कार किए, जिनके जरिए विज्ञान और गणित शिक्षा रुचिकर और सार्थक बन सकती है। मांटेसरी समूह और अन्य कई संस्थाओं द्वारा किए जा रहे शोध को अरविंद ने इकट्ठा किया और कई किताबें लिखीं। विज्ञान शिक्षा पर मुंबई की टी आई एफ आर के साथ जुड़े होमी भाभा सेंटर फॉर साइंस एजुकेशन ने काफी शोध कर 'हल्का फुल्का विज्ञान' नामक पुस्तकें प्रकाशित कीं। दिल्ली विश्वविद्यालय में भी एक साइंस एजुकेशन सेंटर है, जिसके अध्यक्ष भौतिक शास्त्र के प्रोफेसर अमिताभ मुखर्जी हैं। ऐसे मुख्य स्रोतों से प्रेरित होकर देश के विभिन्न हिस्सों में हजारों समर्पित लोग शिक्षा में बुनियादी सुधारों पर काम कर रहे हैं। इन सभी प्रयासों में आम बात यह है कि शिक्षा को रुचिकर, स्थानीय मान्यताओं और पारिस्थितिकी से संगत, सस्ती और व्यापक बनाया जाए। विशेष उदाहरणों पर बाद में विस्तार से चर्चा हो सकती है।

मतलब यह कि बुनियादी स्तर पर सुधार के लिए काम तो बहुत हुए हैं, चल भी रहे हैं, काफी हद तक एन सी ई आर टी जैसी राष्ट्रीय़ शिक्षा संस्थाओं ने इन सुधारों को पाठ्यक्रम में शामिल भी कर लिया है, पर व्यवहारिक सच है कि अधिकतर बच्चे सही और स्तरीय शिक्षा से वंचित हैं। यह मूलतः राजनैतिक प्रश्न है और इसका समाधान राजनैतिक ढंग से ही हो सकता है।

Friday, March 17, 2006

बाकी हर ओर अँधेरा

होली की पूर्व संध्या पर सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित हुआ। बड़ी दिक्कतें आईं। वैसी ही जैसी प्रत्यक्षा ने अपने चिट्ठे में बतलाई हैं। मैंने शुभेंदु से गुजारिश के उसे मनवा लिया था कि वह हमारे लिए एक शाम दे दे। उसका गायन आयोजित करने में मैं बड़ा परेशान रहता हूँ, क्योंकि भले ही दुनिया के सभी देशों में उसके कार्यक्रम हुए हैं, और भले ही जब शुभा मुद्गल को कोई चार लोग जानते थे, तब दोनों ने एकसाथ जनवादी गीतों का कैसेट रेकार्ड किया था, पर अपनी वैचारिक प्रतिबद्धता की वजह से बंदे ने गायन को धंधा नहीं बनाया है। और गायन जिनका धंधा है, जो हर दूसरे दिन अखबारों में छाए होते हैं, ऐसे शास्त्रीय़ संगीतकारों को भी जब युवा पीढ़ी बड़ी मुशकिल से झेलती है, तो निहायत ही अपने दोस्तों तक सीमित गायक, जो अन्यथा वैज्ञानिक है, ऐसे गायक को कौन सुनेगा। खास तौर पर जब उनके अपने छम्मा छम्मा 'क्लासिकल सोलो (!)' नृत्य के कार्यक्रमों की लड़ी उसके बाद होनी हो। इसलिए आयोजन में मेरा वक्त, ऊर्जा, पैसा सबकुछ जाया होता है। इसबार मुझे समझाया गया था कि यहाँ लोकतांत्रिक ढंग से सबकुछ होता है और छात्रों के आयोजन में मैं टाँग न अड़ाऊँ। तो भई हुआ यह कि समय से डेढ़ घंटा लेट और डेढ़ ही घंटा कुल गाकर शुभेंदु को रुकना पड़ा। माइक अच्छा नहीं था, फिर भी मजा आया। रंग-ए-बहार के मिजाज में पहले छोटा खयाल रसिया मैं जाऊँ न, फिर बहार राग में खुसरो का सकल बन फूल रही सरसो, ठुमरी ब्रिज में गोपाल होली खेलन और आखिर में कबीर का साईं रंग डारा मोरा सत्गुरु महाराज! आ हा हा! खुले मैदान में दखन के पठारों की ठंडी हवाएं, आसमान में पूरा चाँद और रंग-ए-बहार की मौशिकी! कोई सौएक लोग थे। बाकी पाँच सौ का हुजूम हमारे जाने के बाद आया जब क्लासिकल सोलो नृत्य की घोषणा के बाद छम्मा छम्मा शुरु हुआ। चलो हम भी कभी बेवकूफ हुआ करते थे। क्यों प्रत्यक्षा!

बाद में सबको विदा कर आधी रात पर मैं इंदिरानगर से लौट रहा था कि एक अद्भुत दृश्य देखा। ऐसा बचपन में देखा है कहाँ कब याद नहीं पर एकाधिक बार देखा है। संभवतः छत्तीसगढ़ से आए मजदूर थे। सड़क के किनारे झुग्गियों के पास मर्द गोल बैठे हुए और औरतें गोलाकार वृत्त में हल्के लय में झूम झूम कर नाचती हुईं। वे दो कदम आगे की ओर बढ़ कर झुकतीं और हाथों पर हाथ जोड़कर हल्की सी तालियाँ बजातीं, दूसरे दो कदमों पर कमर लचकाती हुईं पीछे की ओर उठतीं। चाँद बिल्कुल ऊपर था, बाकी हर ओर अँधेरा, और एकबार मुझे लगा कि मैं सचमुच जैसे स्वर्ग में हूँ। पर मैं चलता चला जैसे मेरे रुकने से वह सुंदर नष्ट हो जाता। उनकी गरीबी का खयाल कर अंदर से दर्द की
एक टीस उठी।

बाकी हर ओर अँधेरा।

होली मैं वैसे भी नई जगह में क्या खेलता और चूँकि अगले दिन भाषण देना था और बिल गेट्स के पावर प्वाइंट से मुझे चिढ़ है, इसलिए लेटेख और बीमर का इस्तेमाल कर पी डी एफ में विषय-वस्तु तैयार करने में सारा दिन लगा दिया।

बहुत पहले कभी होली पर कविता लिखी थी, अप्रकाशित हैः

होली है

भरी बहार सुबह धूप
धूप के सीने में छिपे ओ तारों नक्षत्रों
फागुन रस में डूबे हम
बँधे रंग तरंग
काँपते हमारे अंग।

छिपे छिपे हमें देखो
सृष्टि के ओ जीव निर्जीवों
भरपूर आज हमारा उल्लास
खिलखिलाती हमारी कामिनियाँ
कार्तिक गले मिल रहे
दिलों में पक्षी गाते सा रा सा रा रा।

रंग बिरंगे पंख पसारे
उड़ उड़ हम गोप गोपियाँ
ढूँढते किस किसन को
वह पागल
हर सूरदास रसखान से छिपा
भटका राधा की बौछार में

होली है, सा रा सा रा रा, होली है।

(१९९२)

शुभेंदु ने जो ठुमरी गाई, उसमें देर तक गोपाल होली खेलते रहे, राधा याद नहीं आई या नहीं, युवाओं की यह भी तो प्रोब्लेम है न!

Thursday, March 16, 2006

अनुनाद की सिफारिश पर

अनुनाद ने टिप्पणी लिखी तो मन खुश हो गया। एक तो अरसे से अनुनाद की टिप्पणी पढ़ी न थी। दूसरे छेड़ा भी तो बिल्कुल निशाने पर तीर क्योंकि शिक्षा और स्वास्थ्य क्षेत्रों को लेकर ही मैं वैचारिक रुप से सबसे ज्यादा पीड़ित हूँ। वैसे इसका मतलब यह नहीं कि मैं इन क्षेत्रों पर कोई विशेष शोध कर रहा हूँ। कर ही नहीं सकता। न वक्त न साधन। इन दो क्षेत्रों की सच्चाइयाँ इतनी स्थूल हैं कि भयंकर शोध की ज़रुरत भी नहीं दिखती। इसलिए सबसे पहले तो मैं अपने एक पुराने चिट्ठे में लिखी लाइनें दुहराता हूँ (आँकड़े तकरीबन सही हैं, पर जिन्हें नुक्ताचीनी करनी है, वे करते रहें, बड़ा सच तो सच ही रहेगा, चाहे ३.२% का आँकड़ा ३.३% बन जाए)

**************दिसंबर के चिट्ठे से************
भारतीय शिक्षा-व्यवस्था की समस्याओं के बारे में दो सबसे बड़े सचः-

१) सरकार ने अपने ही संवैधानिक जिम्मेवारियों के तहत बनाई समितिओं की राय अनुसार न्यूनतम धन निवेश नहीं किया है। लंबे समय से यह माना गया है कि यह न्यूनतम राशि सकल घरेलू उत्पाद का ६% होना चाहिए। आजतक शिक्षा में निवेशित धन सकल घरेलू उत्पाद के ३.२% को पार नहीं कर पाया है।
२) राष्ट्रीय बजट का ४०-४५% सुरक्षा के खाते में लगता है, जबकि शिक्षा में मात्र १०-११% ही लगाया जाता है (यह तथ्य शिक्षा और स्वास्थ्य पर होती आम बहस में नहीं बतलाया जाता यानी कि एक भयंकर बौद्धिक बेईमानी और षड़यंत्र।)। इसलिए सवाल यह नहीं कि प्राथमिक और उच्च शिक्षा में लागत का अनुपात कितना है, दोनों ही में ज़रुरत से बहुत कम पैसा लगाया गया है।

भारतीय शिक्षा-व्यवस्था की सबसे शर्मनाक बातः-

अफ्रीका के भयंकर गरीबी से ग्रस्त माने जाने वाले sub-सहारा अंचल के देशों में भी शिक्षा के लिए निवेशित धन सकल घरेलू उत्पाद के प्रतिशत के पैमाने में भारत की तुलना में अधिक है।

भारतीय शिक्षा-व्यवस्था के बारे में दो सबसे बड़े झूठ:-

१) समस्या यह है कि हमने बहुत सारे विश्वविद्यालय खोल लिए हैं।
२) हमारे विश्वविद्यालयों में शिक्षा बहुत सस्ती है।

शिक्षा में जो सीमित संसाधन हैं भी, उनके उपयोग का स्तर अयोग्य और भ्रष्ट प्रबंधन की वजह से अपेक्षा से कहीं कम हो पाता है। खास कर, नियुक्तियों में व्यापक भ्रष्टाचार है।
वैसे बिना तुलनात्मक अध्ययन किए लोग, खास तौर पर हमारे जैसे सुविधा-संपन्न लोग, जो मर्जी कहते रहते हैं; कोई निजीकरण चाहता है, कोई अध्यापकों की कामचोरी के अलावा कुछ नहीं देख पाता। पश्चिमी मुल्कों से तो हम लोग क्या तुलना करें, जरा चीन के आँकड़ों पर ही लोग नज़र डाल लें (हालाँकि चीन के बारे में झूठ सच का कुछ पता नहीं चलता)। साथ में शाश्वत सत्य ध्यान में रखें - पइसा नहीं है तो माल भी नहीं मिलेगा। अच्छे अध्यापक चाहिए तो अच्छे पैसे तो लगेंगे ही। अच्छे लोग आएंगे तो भ्रष्टाचार भी कम होगा। राजनैतिक दबाव के आगे भी अच्छे लोग ही खड़े हो सकते हैं।

**************

आज ही अपने आई आई टी के अध्यापक प्रोफेसर सत्यमूर्ति जो हैदराबाद सेंट्रल यूनीवर्सिटी आए थे और जो राष्ट्रीय विज्ञान संरचना में काफी पहुँचे हुए व्यक्ति हैं, उनसे बात हो रही थी। उनका मानना है कि भारत में शोध कार्य कर रहे लोगों की भयंकर कमी है। पी एच डी प्राप्त करने वालों की कुल संख्या रैखिक पैमाने पर बढ़ रही है और रेखा की ढलान कम होती जा रही है। इसके विपरीत चीन में यह संख्या exponentially बढ़ रही है। २००८-०९ तक भारत में साल भर में पी एच डी करने वालों की संख्या ५००० होगी जबकि यही संख्या चीन में १४००० होगी।
अनुनाद ने छेड़ तो दिया पर यह विषय इतना बड़ा है कि झट से लिखना संभव नहीं है। मसलन क्या पी एच डी करने वालों की संख्या और शोध कार्य के स्तर में कोई संबंध है। आज हैदराबाद सेंट्रल यूनीवर्सिटी में ही केमिस्ट्री के कालेज और यूनीवर्सिटी अध्यापकों के लिए रीफ्रेसर कोर्स में भाषण देने के बाद जब किसी ने मुझसे सवाल नहीं पूछा तो हारकर मैंने यही कहा कि संभवतः मैं बहुत ही बेकार वक्ता हूँ। मेरे अध्यापक सत्यमूर्ति जो स्नेहवश मेरे भाषण में बैठे हुए थे उन्होंने जरा बहस छेड़ने की कोशिश की तो भी बस मेरे और उनके बीच संवाद होता रहा। पर मैं जानता हूँ कि कलकत्ता में कालेज और यूनीवर्सिटी अध्यापकों के सामने बोलने पर बिल्कुल अलग अनुभव होता है। प्रोफेसर सत्यमूर्ति का कहना था कि यहाँ के साधारण कालेज और यूनीवर्सिटी में केमिस्ट्री पढ़ाने का स्तर वैसा है नहीं जैसा कलकत्ता में है। यानी कि डिग्री चाहे एक हो, स्तर में बड़ा अंतर है। चीन के सालाना १४००० पी एच डी कैसे होंगे क्या पता, पर मेरा मानना है कि वे औसतन इतने बेकार न होंगे जितने हमारे यहाँ हैं। इसकी वजह विशुद्ध राजनैतिक है। चूँकि हमारे देश में वर्ग और जाति के आधार पर अभी भी जनसंख्या के बहुत बड़े हिस्से को शिक्षा से अलग रखा गया है, इसलिए हमारी डिग्रियों का औसत स्तर कभी भी बहुत अच्छा नहीं होगा। पंजाब विश्वविद्यालय में काम करते हुए मैंने देखा है कि उच्च शिक्षा में वर्ग, संप्रदाय और जाति के आधार पर कैसा व्यापक भ्रष्टाचार है। आप देश के किसी भी कोने में चले जाइए, क्षेत्रीय विश्वविद्यालयों के अध्यापकों का बड़ा हिस्सा in-bred यानी कि उसी संस्थान में पढ़ा लिखा हुआ मिलेगा। ऐसे अध्यापक निहित स्वार्थ समूह की तरह विश्वविद्यालय की राजनीति पर हावी रहते हैं। इनकी नियुक्ति, पदोन्नति, सब कुछ ही भ्रष्ट तरीके से हुई होती है और इसमें अक्सर उन तथाकथित अच्छे लोगों का हाथ होता है जिन्होंने सब कुछ जानते हुए भी निहायत ही छोटी छोटी सुविधाओं के लिए क्षमता होते हुए भी गलत बातों का विरोध नहीं किया होता है।

यानी कि संसाधनों का अभाव, वर्ग-जाति-संप्रदाय आधारित समाज व्यवस्था, घटिया राजनीति - ये क्षेत्रीय विश्वविद्यालयों के पतन के मुख्य कारण हैं। इनसे अलग स्तरीय शिक्षा के जो थोड़े बहुत द्वीप (आई आई टी, आई आई एस सी या केंद्रीय विश्वविद्यालय) हैं, वहाँ या तो फीस बहुत अधिक है या वह सांस्कृतिक कारणों से देश की अधिकतर जनता की पहुँच से दूर हैं।

चीन में गलत तरीके से ही सही, एक ऐसी सामाजिक-राजनैतिक व्यवस्था है, जिसके तहत देश की अधिकांश जनता को स्तरीय स्कूली शिक्षा मिलती है। इसी शिक्षित तबके में से ही चुनींदा लोग उच्च शिक्षा के लिए आते हैं और उनकी नियुक्ति या पदोन्नति में भ्रष्टाचार अपेक्षाकृत बहुत कम है। इसलिए दोस्तो, हम चीन को पकड़ लेंगे जैसा झूठ जो हमें पिलाते रहते हैं, उनके प्रति हमें सावधान रहना चाहिए। शोध के स्तर में उनकी तरक्की वास्तविक है, यह अंतर्राष्ट्रीय शोध पत्रिकाओं में उनकी लगातार बढ़ती हिस्सेदारी से स्पष्ट है। इसका नतीजा यह होगा कि कुछ ही वर्षों में जब हम अपने सॉफ्टवेयर कुलियों पर गर्व करते रहेंगे, चीन की होड़ हमसे कहीं आगे पश्चिमी मुल्कों और जापान से हो रही होगी। कुछेक अपवादों को छोड़ कर, हमारे आई टी क्षेत्र के हजारों लोग काल सेंटर्स में पश्चिमी ग्राहकों के सवालों के जवाब देते रहेंगे। चीन के वैज्ञानिक और इंजीनीयर नई तकनीकों को विकसित कर रहे होंगे, जिनपर हमारे सॉफ्टवेयर कुली भाड़े के टट्टुओं जैसे काम कर रहे होंगे।
अनंत सवाल बाकी रह गए। इन पर फिर कभी।

Monday, March 13, 2006

गोलकंडा की थकान और एक अच्छे मित्र से मिलना

यहाँ दरख्तों के साए में धूप लगती है आओ यहाँ से चलें उम्र भर के लिए - यही पंक्ति है न दुष्यंत की जो हमलोग कालेज के जमाने में पढ़ते थे?

वह धूप कुछ और है - उसका जिक्र आखिर में करुँगा। यहाँ जिस धूप की बात है वह वैसे तो अच्छी लगती है पर उस दिन इस निगोड़ी धूप ने थका ही दिया। गर्मियों में गणनात्मक यानी कंप्यूटेशनल भौतिक और जैव विज्ञान पर एक कार्यशाला करनी है - उनके पोस्टर बनवाने के सिलसिले में शहर गया था। वहाँ से लौटते हुए रास्ते में मेंहदीपटनम शुभेंदु की माताजी से दो मिनटों के लिए मिलने पहुँचा कि शुभेंदु की अनुपस्थिति में सब ठीक है कि नहीं - पता चला शुभेंदु आ पहुँचा है। फिर अभिजित का फ़ोन आ गया कि कानपुर से आए मित्र को शहर घुमाने ला रहा हूँ साथ चलो। मेरी क्लास नहीं थी तो कहा चलो एक दिन घूमना सही।

पहले सलारजंग संग्रहालय गए। करीब एक घंटा लगाया। पहले दो चार बार हैदराबाद आया हूँ सलारजंग देखा नहीं था। सुना बहुत था। पर देखकर इतनी बड़ी बात लगी नहीं जितना सुना था। बहरहाल राज-रजवाड़ों में से किसी का निजी संग्रह इतना विशाल हो, बड़ी अच्छी बात है। फार ईस्ट यानी जापान से लाए उन्नीसवीं सदी के बर्त्तनों का शिल्प कार्य देख रहे थे कि पाँच बज गए। फिर वहाँ से चारमीनार का चक्कर लगाकर गोलकंडा के लिए रवाना हुए। आम बोली में कहते गोलकोंडा हैं, पर मैं फिलहाल गोलकंडा ही लिख रहा हूँ। दखनी में कैसे कहते हैं पता लगाऊँगा। रास्ते में पश्चिम से आ रही धूप झेलता रहा तो पहुँचने तक सिर दर्द शुरु हो गया था।

गोलकंडा का किला और अमिताभ बच्चन की आवाज में साज और आवाज का कार्यक्रम पहले देख सुन चुका था। फिर भी दुबारा देखना अच्छा ही लग रहा था। किले की सैर करते हुए अभिजित से कई नई बातें पता चलीं। कहाँ घुड़साल थी, कहाँ भर्त्ती होने आए सैनिकों को २४० किलो का वजन उठाने को कहा जाता था। मैंने भी कोशिश की (हास्यास्पद रुप से असफल) और अपने एक पुराने सिद्धांत को दुहराता रहा कि यह सब झूठ है कि पुराने लोग हमलोगों से ज्यादा ताकतवर होते थे - आखिर भोजन में पोषक तत्व आज के जमाने में ज्यादा हैं, पर किसी ने न सुना।

साज और आवाज कार्यक्रम के लिए गए तो वहाँ मराठी किशोर किशोरियों का एक विशाल झुंड दो तिहाई सीटें घेर कर बैठा हुआ था। उनका शोरगुल हँसी मजाक रुका नहीं और हमलोग सफेद बालों वाले कुछ आह्लादित और कुछ दुःखी मन से उन्हें झेलते रहे। लगातार कीट निरोधक धुँआ फैलाकर मच्छरों को भगाने की कोशिश की गई, जिससे हर कोई परेशान था, पर मच्छर सचमुच इससे कम हुए। इन किशोरों के व्यवहार से मुझे अपने कालेज के दिनों की एक बात याद आ गई, जिसे सोचकर मैं आज भी शर्मिंदा होता हूँ। १९७५ में प्रेसीडेंसी कालेज की ओर से शैक्षणिक यात्रा में हमलोग दक्षिण भारत गए थे। हम इक्कीस छात्र छात्राएँ द्वितीय श्रेणी के कोच में और हमारे अध्यापक पहली श्रेणी के कोच में थे। रास्ते में बेसुरा गा गाकर हम लोगों को परेशान करते जा रहे थे, हालाँकि उनदिनों हमलोग रवींद्र संगीत ही ज्यादा गाते थे, जो बेसुरा गाए जाने पर कम से कम ध्वनि प्रदूषण की दृष्टि से रॉक म्युज़िक या फूहड़ हँसी मजाक से अपेक्षाकृत ज्यादा झेला जा सकता है। बहरहाल साढ़े नौ बजे थे तो एक बुजुर्ग ने कह दिया अब सो जाओ। हममें से कुछ ने ध्यान दिया कुछ ने नहीं।
मैंने उस व्यक्ति को सुबह अजीबोगरीब ढंग से दोनों पैर पीछे की ओर उछालते हुए कसरत करते हुए मंजन करते देखा था। पता नहीं इसी वजह से या किस तरह मेरे मुँह से निकल गया - पागल है यार!
मैंने तो कह दिया, सामने बैठा एक युवक अचानक आँखें लाल करते हुए बोला - गाना गा रहे हो गाओ, गाली मत दो। मैं भी अड़ गया - आपके कोई लगते हैं क्या? (सचमुच मैंने यह सवाल किया था - प्रमाणित हुआ कि मैं एक बेवकूफ था - QED)। बात बढ़े इसके पहले हमारे साथ आईं एम एस सी पढ़ रही दो दीदियों ने मुझे बैठा दिया (ओ, अनसूया दी, इतना अच्छा गाती थी - वह कहानी फिर कभी)।
बहरहाल उस दिन गोलकंडा में मुझे अपने किशोरावस्था की वह बात याद आती रही। मुझे मराठी आती नहीं, पर थोड़ा बहुत समझ ही लेते हैं, उससे यह तो लगा कि हमारे समय जैसा संकोच अब किशोरों में नहीं है, लड़के लड़कियाँ आपस में काफी कुछ बतिया लेते हैं चाहे हमारे जैसे के में एच पास बैठे हों।

वहाँ से बढ़ी हुई थकान और सिरदर्द सहित लौटकर कहीं खा पीकर मित्र को स्टेशन पर छोड़कर मैं और अभिजित ग्रैंड काकातिया होटल में रवि से मिलने गए। रवि मेरे पहले चिट्ठों में चर्चित मीरा नंदा का पति है। पहली बार उससे मिला। इसके पहले ई-मेल पर ही संक्षिप्त मुलाकात हुई थी। काफी देर बातचीत हुई। रवि एक ज़माने में पी पी एस टी (पीपुल फार पेट्रियाटिक साइंस ऐंड टेक्नोलोजी) के साथ जुड़ा रहा है। पुराने कई दोस्तों का लेखा जोखा लेते रहे। रवि कहता रहा कि दुनिया कितनी छोटी है। वहाँ होटल में चारों ओर फैले प्राचुर्य को देखकर वह बार बार परेशान हो रहा था कि किस भारत में बैठे हैं। थोड़ी देर पहले वह स्थानीय बिज़नेस स्कूल में डिनर कर लौटा था। वहाँ भी खूब शानो शौकत थी। उसका कहना था कि ऐसा तो अमरीका में भी नहीं दिखता।

यहाँ दरख्तों के साए में धूप लगती है आओ यहाँ से चलें उम्र भर के लिए - यही पंक्ति है न दुष्यंत की!

वैसे अबतक मेरा सिरदर्द ठीक हो चुका था। धूप को बीते पाँच छः घंटे हो चुके थे। रवि इन दिनों कने(क्)टीकट में इंजीनियर है। कंपनी के काम से बंगलौर हैदराबाद आया था। अभिजित को घर से बुलावा आ गया और वह चला गया। मैं काफी देर तक कुछ निजी समस्याओं पर बातें करता रहा।

दिल्ली से चलने से पहले रवि ने एकबार फ़ोन किया। मुझे लगा मैंने ही नहीं उसने भी सोचा कि एक अच्छा मित्र बनाया।

Saturday, March 11, 2006

आजीवन


फिर मिले
फिर किया वादा
फिर मिलेंगे।


बहुत दूर
इतनी दूरी से नहीं कह सकते
जो कुछ भी कहना चाहिए

होते करीब तो कहते वह सब
जो नहीं कहना चाहिए

आजीवन ढूँढते रहेंगे
वह दूरी
सही सही जिसमें कही जाएँगी बातें।

(साक्षात्कार- मार्च १९९७)


मुझे बार बार लग रहा है कि यह कविता मैं पहले पोस्ट कर चुका हूँ। अगर सचमुच की हो तो? बाप रे, पिटाई हो सकती है। चलो काफी दिनों तक पिटाई हुई नहीं (मसिजीवी के उल्टे सवालों को पिटाई थोड़े ही कहेंगे!) हो भी जाए तो क्या!

Wednesday, March 08, 2006

अपने उस आप को

अपने उस आप को

अपने उस आप को कैसे समझाऊँ
हर निषिद्ध पेय उतारना चाहता कंठ में

हर आँगन के कोने में रख आता प्यार की सीढ़ी
बो आता घने नीले आस्मान में उगने वाले बादलों के पेड़
जंगली भैंसें, मदमत्त हाथी
सबके सामने खड़ा चाहता महुआ की महक

हर वर्जित उत्तरीय ओढ़ता
सपने भी वही जिनके खिलाफ संविधान में कानून
बीच सड़क उड़ती गाड़ियाँ रोक
चाहता दुःख, चाहता पृथ्वी भर का दुःख
कहता सारे सुख ले लो
ओ सुखी लोगो, बच्चों को उनकी कहानियाँ दे दो

अपने उस आप को कैसे समझाऊँ
मृत्यु स्वयं भी सामने आ जाए तो पढ़ता कविता
चीख चीख कर रोता
राष्ट्रपति कलाम के भाषण दौरान

जब हर कोई मस्त उड़ रहा नशे में
बच्चों को बाँसुरी की धुन पर ले जाता दूर

अपने उस आप को कैसे समझाऊँ।

२००५ (साक्षात्कार २००६)

Sunday, March 05, 2006

औरत गीत गाती है

हिंदी कथा हिंदी व्यथा
हिंदी में लिखना जिसे कहते हैं बाई डेफीनीशन व्यथा पूर्ण है।
जो लिखवाते हैं यानी संपादक वे भी व्यथा में डूबे हैं, हम जो लिखते हैं, हम भी।
लघु पत्रिकाओं के संपादक बड़ी मुश्किल से जेब से पैसा लगा लगा के पत्रिका चलाते हैं। हम लोग लिखते हैं, अक्सर पता ही नहीं चलता कि सामग्री पहुँची भी कि नहीं। जब नया लिखना शुरु किया था, तब स्टैंप लगा जवाबी लिफाफा भेजते थे। धीरे धीरे जाना कि यह मूर्खता है क्योंकि हिंदीवाले जवाबी लिफाफा फेंक फाँक देते होंगे। अब तो वे दिन याद भी नहीं हैं। पहली कहानी कमलेश्वर के चयन से सारिका में छपी, पर जब तक छपी सारिका थोड़े दिनों के लिए बंद होकर फिर चली कन्हैया लाल नंदन के संपादन में। कमलेश्वर का खत जब आया था तो मैं फूला न समाया। पर फिर पत्रिका बंद ही हो गई। जब दुबारा प्रकाशन की सूचना मिली तो मैं प्रिंस्टन पहुँच चुका था। उन दिनों कहानी पढ़ कर लोग चिट्ठियाँ लिखा करते थे। घर वालों ने कोई सौएक चिट्ठियों में से छाँटकर तीस भेजीं। लंबे समय तक इनको सँजो कर रखा था। उनमें एक खत बी एच यू में पढ़ रहे एक लड़के का था, जिसने रोते हुए खत लिखा था। अक्सर सोचता हूँ पता नहीं वह कहाँ है। मेरा मौसम (भू भौतिक द्रव गतिकी) शोधकर्त्ता मित्र सुमंत निगम भारत आ रहा था - अच्छी तरह समझाया कि ज्यादा पढ़ी जाने वाली सरिता नहीं सारिका का अंक लाना है। बंदा लौटा तो सरिता लेकर ही लौटा और कहता है कि लाल्टू यार बहुत ढूँढा तेरी कहानी तो मिली नहीं। तब तक घर वालों ने ही प्रति भेज दी थी।
बहरहाल, अब जो कुछ भी भेजते हैं, छप तो जाता है, पर छपता है इतने दिनों बाद कि इसी बीच उसे काट छाँट के कहीं और भेज चुका होता हूँ। हमारे मित्र अजेय कुमार बड़ी शिद्दत के साथ 'उद्भावना' निकालते हैं। उनके पाब्लो नेरुदा अंक के लिए पिछली गर्मियों में एक कविता लिखी थी। हाल में ही अंक छप कर आया है। इसी बीच संशोधित स्वरुप कहीं और जा चुका है। कई बार सोचता हूँ कि अगर समय पर पता चलता रहता तो कितना उत्साह मिलता। मेरी समस्या है कि न तो हिंदी पढ़ने लिखने वालों की संगति मिलती है, न ही इतना समय होता है। बहरहाल, यह रही कविता (पत्रिका में प्रकाशित स्वरुप थोड़ा भिन्न है):
औरत गीत गाती है।

(
पाब्लो नेरुदा की स्मृति में)
शहर समुद्र तट से काफी ऊपर है।
अखबारों में आस-पास के ऐतिहासिक स्थलों की तस्वीरों में थोड़ा बहुत पहाड़ है।
जहाँ मैं हूँ, वहाँ छोटा सा जंगल है। इन सब के बीच सड़क बनाती औरत
गले में जमी दिन भर की धूल थूकती है।
औरत गीत गाती है।
गीत में माक्चू-पिक्चू की प्रतिध्वनि है।
चरवाहा है, प्रेयसी है।
इन दिनों बारिश हर रोज होती है।
रात को कंबल लपेटे झींगुरों की झीं-झीं के साथ बांसुरी की आवाज सुनाई देती है।
पसीने भरे मर्द को संभालती नशे में
औरत गीत गाती है।
उसके शरीर में हमेशा मिट्टी होती है।
दूर से भी उसकी गंध मिट्टी की गंध ले आती है।
वह मुड़ती है, झुकती है, मिट्टी उसे घेर लेती है।
ठेकेदार चिल्लाता है, वह सीधी खड़ी होकर नाक में उँगली डालती है।
मेरे बैठक में खबरों के साथ
उसके गंध की लय आ मिलती है।
भात पका रही
औरत गीत गाती है।
मेरी खिड़की के बाहर ओक पेड़ के पत्ते हैं।
डालियाँ खिड़की तक आकर रुक गई हैं।
सुबह बंदर के बच्चे कभी डालियों कभी खिड़की पर
उल्टे लटकते हैं।
पत्तों के बीच में से छन कर आती है धूप
जैसे बहुत कुछ जैसा है
वैसे के बीच में बदलता आता है समय।
आश्वस्त होता हूँ कि नया दिन है
जब जंगल, खिड़की पार कर आती है उसकी आवाज़।
काम पर जा रही
औरत गीत गाती है।

-
मई 2005 (उद्भावना 2005-06)

Thursday, March 02, 2006

ले जा

अखबार की हेडलाइन हैः PM shows warmth, India heats up।
चलो इसी बहाने कुछ हल्ला, कुछ गुल्ला। बसंत के दिन हैं आखिर, सकल बन फूल रही सरसों।।।
ले जा बुश, प्रतिवाद-मुखरता के उस उत्सव में उड़ रही धूल ले जा, इस धूल में बसे अनंत जीवाणु तेरी नासिकाओं को खा जाएँ।
करोड़ों के मन से निकले अभिशाप में मेरी सांद्र वितृष्णा का एक बूँद तेरे लिए।

Wednesday, March 01, 2006

तेरे दामन से जो आएँ उन हवाओं को सलाम

स्कूल वालों ने शाना को देशभक्ति पर शोध करने का काम दिया है। आम तौर पर इस तरह का गृहकार्य रुटीन तरीके से समेट लिया जाता है, पर शाना इस पर गंभीर है। चार महीने पहले भाषण प्रतियोगिता में देशभक्ति की आलोचना कर बड़ी सारी ट्राफी जीती थी।

फ़ोन पर मैंने बतलाया कि मैं देशभक्त हूँ क्योंकि मुझे भारत की उन हवाओं से प्यार है जो पाकिस्तान भी आती जाती हैं। भारत की चिड़ियों से तो प्यार होगा ही क्योंकि वे चीन भी आती जाती हैं। वैसे शाना के शब्दकोष में 'पिता' का अर्थ बेतुकी बातें कहकर चिढ़ाने वाला शख्स जैसी कोई संज्ञा होगी, पर इस बार उसने साफ कहा यह सब देशभक्ति नहीं है। फिर मैंने एक पुराना अमरीकी लोकगीत गाकर सुनाया (यानी दो लाइन, मुझे हर गीत की दो लाइनें ही याद रहती हैं), 'दिस लैंड इज़ योर लैंड, दिस लैंड इज़ माई लैंड, फ्रॉम कैलिफोर्निया रेडवुड्स, टू न्यू यार्क आईलैंड्स, दिस लैंड इज़ मेड फॉर यू ऐंड मी'। वुडी गथरी का गाया क्लासिक गीत है, जिसे बाद में पीट सीगर, जोन बाएज़ जैसे कइयों ने गाया है।

शाना का जवाब था - मुझे कंट्री म्युज़िक पसंद नहीं है। अब मेरे शब्दकोष में किशोरी पुत्री का अर्थ क्या होगा, आप कल्पना कर सकते हैं। बहरहाल, मुझे मन्ना दे* का गाया 'काबुलीवाला' वाला वह गीत देशभक्ति का सबसे बढ़िया गीत लगता है: ऐ मेरे प्यारे वतन, ऐ मेरे बिछुड़े चमन, तुझ पे दिल कुर्बान। इसमे जब वो लाइन आती है - माँ का दिल बनकर कभी सीने से लग जाता है तू - तो मुझे रोना आ जाता है। मैं यह गीत गा भी लेता हूँ (अमूमन मेरा गायन मौलिक होता है ः-)

अब मैं क्या करूँ कि देशभक्ति का सबसे बढ़िया हिंदी गाना एक काबुलीवाला गाता है। गाने को एक भारतीय आत्मा का मुझे फेंक देना वनमाली भी गा ही लेता हूँ, पर उसे बराबर दर्जे की देशभक्ति नहीं मान पाता। जब सामरिक खाते में बजट वृद्धि की खबर पढ़ता हूँ, तो लगता है इस वक्त सच्ची देशभक्ति इन जनविरोधी सरकारों के खिलाफ आवाज उठाने की प्रवृत्ति ही हो सकती है। शिक्षा में दोस्तो जो पिछले सालों में सेस लगा था उसकी बदौलत रोटी का टुकड़ा थोड़ा बड़ा हुआ है, अन्यथा लोगों को मरवाने वाले इन जंगी गद्दारों ने देश के लोगों का खून पसीना लुटाते ही रहना है।

*तरुण की टिप्पणी के बाद संशोधित