Thursday, February 02, 2006

हर कोई

हर किसी की ज़िंदगी में आता है ऐसा वक्त
उठते ही एक सुबह
पिछले कई महीनों की प्रबल आशंका
संभावनाओं के सभी हिसाब किताब
गड्डमड्ड कर
साल की सबसे सर्द भोर जैसी
दरवाजे पर खड़ी होती है

तब हर कोई जानता है
ऐसा हमेशा से तय था फिर भी
कल तक उसकी संभावनाओं के बारे में
सोचते रह सकने का हर कोई
शुक्रिया अदा करता है
उस अनिश्चितता का जो
बिना किसी बयान के
होती चिरंतन

फिर हर कोई
होता है तैयार
सड़क पर निकलते ही
'ओफ्फो! बहुत गलत हुआ' सुनने को
या होता विक्षिप्त उछालता इधर उधर पड़े पत्थरों को
या अकेले में बैठ चाह सकता है
किसी की गोद में
आँखें छिपा फफक फफक कर रोना

हर कोई गुजरता है इस वक्त से
अपनी तरह और कभी
डूबते सूरज के साथ
लौटा देता है वक्त उसी
समुद्र को

फेंका जिसने इसे पुच्छल तारे सा
हर किसी के जीवन में।

(१९९४; इतवारी पत्रिका-१९९७)

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