Saturday, November 26, 2005

अहा ग्राम्य जीवन भी ...

अबोहर में गया तो केमिस्ट्री का भाषण देने, पर हिन्दी वालों को पता चला तो उन्होंने भी गोष्ठी आयोजित कर ली। अभी अभी लंबी ड्राइव के बाद लौटा हूँ। सुखद आश्चर्य यह कि मेरी पंद्रह साल की बिटिया ने भी मेरा लिखा पढ़ा। चलो इसी खुशी में एक और कविता :

अहा ग्राम्य जीवन भी ...

शाम होते ही उनके साथ उनकी शहरी गंध उस कमरे में बंद हो जाती है ।
कभी-कभी अँधेरी रातों में रजाई में दुबकी मैं सुनती उनकी साँसों का आना-जाना ।
साफ आसमान में तारे तक टूटे मकान के एकमात्र कमरे के ऊपर मँडराते हैं ।

वे जब जाते हैं मैं रोती हूँ । उसने बचपन यहीं गुज़ारा है मिट्टी और गोबर के बीच,
वह समझता है कि मैं उसे आँसुओं के उपहार देती हूँ। जाते हुए वह दे जाता है
किताबें साल भर जिन्हें सीने से लगाकर रखती हूँ मैं ।

साल भर इंतज़ार करती हूँ कि उनके आँगन में बँधी हमारी सोहनी
फिर बसंत राग गाएगी। फिर डब्बू का भौंकना सुन माँ दरवाजा खोलेगी
कहेगी कि काटेगा नहीं ।

फिर किताब मिलेगी जिसमें होगी कविता - अहा ग्राम्य जीवन भी ...
(पल-प्रतिपल २००५)

1 comment:

Pratyaksha said...

आपकी कविता अच्छी लगी

प्रत्यक्षा