Thursday, November 17, 2005

पिछले चिट्ठे से आगे

आधुनिकता से त्रस्त होकर बीसवीं सदी के चिंतकों ने सोचना शुरु किया कि आखिर माजरा क्या है। खासकर यूरोप में आलोचना के नए पैमाने बने, जिनके आधार पर यह तय हुआ कि कुछ भी सार्वभौमिक नहीं होता। जो कुछ भी हम सोचते हैं, वह जितना भी निरपेक्ष लगे, उसके पीछे दरअसल हमारे पूर्वाग्रह काम कर रहे होते हैं, जो हमें समाज से या अपने परिवेश से मिले होते हैं। यहाँ तक बात पहुँच गई कि पूँजीवादी व्यवस्था के शोषण और जंगखोर सरकारों के खिलाफ जो आक्रोश साठ के दशक में पश्चिमी देशों में हुआ, उसका बौद्धिक नेतृत्व कई जगह इन नए चिंतकों के हाथ आया। तीसरी दुनिया के देशों में भी एक नई वाम चिंतकों की श्रेणी उभर कर सामने आई, जिन्होंने वैज्ञानिक तर्कशीलता पर गंभीर प्रश्न खड़े किए। विज्ञान की बुनियादी संरचना में ही पर्यावरण के विनाश के तत्व हैं और पुरुषप्रधान सोच हावी है, ऐसा माना जाने लगा। आधुनिकता ने व्यक्ति स्वतंत्रता की जो संभावनाएं सामने ला खड़ी की थी, उसे शक की नज़रों से देखा जाने लगा। आखिर व्यक्ति स्वतंत्रता से मानव का जीवन तो सुखमय नहीं हो पाया था। अजीब स्थिति थी कि जो लोग विज्ञान को कटघरे पर खडा कर रहे थे, वे सब अपनी बातों को सामने लाने के लिए या अपनी जीवन शैली को बेहतर बनाने में वैज्ञानिक और तकनीकी उपायों का या आधुनिक मूल्यों का इस्तेमाल करने से नहीं हिचकते थे।

आधुनिक सोच ने कला और साहित्य में मौलिकता की जिस धारणा को प्रतिष्ठित किया था, क्या वह वांछनीय है? भीमबैठका की गुफाओं में मौजूद प्रागैतिहासिक कलाकृतियाँ जिनमें कलाकार की मौलिक पहचान नहीं है, क्या ये मध्यकालीन कृतियों से कमतर हैं? हर आधुनिक कृति को उसकी सामाजिक पृष्ठभूमि में विखंडित किया जा सकता है - इस तरह कुछ भी आखिरकार मौलिक नहीं है। इस तर्क को खींचकर विज्ञान के बुनियादी सिद्धांतों पर भी लागू किया जाने लगा।

वैज्ञानिक पेशा और वैज्ञानिक संस्कृति की कई सीमाओं का खुलासा उत्तर-आधुनिक चिंतन ने किया है। बाकी के समाज से अलग एक जादुई दुनिया में खोए होने का भ्रम तो औसत वैज्ञानिकों में होता ही है। साथ ही पेशे के आधार पर सुविधाओं की नई खाइयाँ भी वैज्ञानिक संस्कृति की उपज है। गहराई से देखा जाए तो वैज्ञानिक संस्कृति के अनगिनत विरोधाभास हैं, जिन पर बहस होनी चाहिए और उत्तर-आधुनिक चिंतन के जरिए यह बौद्धिक व्यवसाय का हिस्सा बना है।

वैज्ञानिक पद्धति का एक मुख्य अंग है जटिल विषय-वस्तु को टुकड़ों में बाँटकर देखना। इसे अंग्रेज़ी में reductionism कहते हैं। जब इस पद्धति को सामाजिक मुद्दों पर लागू किया जाता है तो बहुत गंभीर समस्याएं आ खड़ी होती हैं, क्योंकि व्यक्ति का और उसके बाद समाज का एक सर्वांगीण स्वरुप होता है, जिसे टुकड़ों में बाँटकर समझा नहीं जा सकता। पिछली सदियों में विज्ञान और वैज्ञानिक पद्धति के विकास में reductionism और holism यानी विषय-वस्तु को उसके सर्वांगीण स्वरुप में समझने पर काफी बहस होती रही है, पर उत्तर-आधुनिक आलोचकों ने इसको नज़रअंदाज़ कर विज्ञान और वैज्ञानिक पद्धति को reductionist पद्धति के अलावा और कुछ मानने से इन्कार कर दिया। वैसे यह ठीक नहीं कि सभी उत्तर-आधुनिक आलोचक इस तरह से सोचते थे, पर यह सही है कि उत्तर-आधुनिक चिंतन का मुख्य विंदु यही रहा है।

चारों ओर करो धुनाई विज्ञान की जैसा एक माहौल पैदा हो गया। यानी कि उत्तर-आधुनिक आलोचना के नाम पर बगैर सोचे समझे आधुनिक सोच में से सब कुछ निकाल फेंकने की प्रवृत्ति बढ़ने लगी।

जब पानी मुँह तक आ गया और वैकल्पिक संस्कृति के संघर्ष में शामिल वैज्ञानिक घबराने लगे कि यह क्या चल रहा है, कुछ पल्ले नहीं पड़ रहा, तब विरोध भी बढ़ने लगा। साहित्य और समाज के क्षेत्र में शुरु से ही उत्तर-आधुनिकता के उद्देश्यों पर कट्टर मार्क्सवादी सवाल उठा रहे थे, अंत में वैज्ञानिक भी रणक्षेत्र में उतर आए। इनमें से खासकर न्यूयार्क यूनीवर्सिटी के एक वैज्ञानिक ऐलन सोकल, जिसने पश्चिमी साम्राज्यवाद के खिलाफ लड़ाई में अपनी छोटी सी भागीदारी की थी, ने १९९६ में यह साबित कर तहलका मचा दिया कि नारीवादी और पर्यावरणवादी उक्तियों के आधार पर विज्ञान की आलोचना पर कोई भी बेसिरपैर का आलेख समाज विज्ञान की बड़ी से बड़ी पत्रिका में प्रकाशित किया जा सकता है । इसपर अगली बार..........

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